मजबूरी ही पैदल चलती

मजबूरी ही पैदल चलती सिर पर लादे धूपआँतों में अंगारे रखकर चलते जाते पाँव लेकिन इनको भान नहीं अब बदल चुका है गाँव लाचारी, उम्मीदें हारी नहीं कहीं भी छाँव और राह में मिलते केवल सूखे अंधे कूपभूख, रोग, दुर्घटना, चिंता है मौसम की मार हिम्मत कब तक साथ निभाये किस्मत ही बीमार

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तपती दोपहरी

व्यथा-कथा वह किसे सुनाए धूप-धूप तन तपता निशा की शीतलता पाकर यह हरसिंगार-सा झरता धीरज सहज टूट जाता जब दिशा हुई बहरी!

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मीटर से

लाँघी है अपरिमित दूरी तुम माप नहीं सकते मीटर से।खुले गगन में तौल-तौल के फैलाये हैं डैने लेकिन अंतर रहा प्रवाहित तट तोड़े हैं कितने रही पपीहे-सी रट हरदम टूट गया भीतर से।

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इतिहास रचाने

बड़ा फासला जीने में हैफटे वस्त्र को सीने में हैकटु-मधु आसव पीने में हैसाँस-साँस में टँगी जिंदगी दुनिया में इतिहास रचाने इस जीवन में मरना पड़ता है!

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सुविधा की शैम्पेन

शहरी राधा को गाँवों की मुरली नहीं सुहाती है, पीतांबर की जगह ‘जींस’ की चंचल चाल लुभाती है। सुविधा की शैम्पन में खोकर, रस की गागर भूल गए।

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