दीवार में रास्ता

‘छोटी जान आजमगढ़ आ रही हैं।’ मोहसिन को महसूस हुआ कि अब दीवार में रास्ता बनाना संभव हो सकता है। भावज ने पोपले मुँह से पूछ ही लिया, ‘अरे कब आ रही है? क्या अकेली आ रही है या जमाई राजा भी साथ में होंगे? सलमान मियाँ को देखे तो एक जमाना हो गया है।...वैसे, मरी ने आने के लिये चुना भी तो रमजान का महीना!’ भावज की आँखों के कोर भीग गए।

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रंग-बेरंग

अविरल बहती नदी की तरह कभी उछाल मारती तो कभी मंथर गति से निरंतर बहते हुए किसी भी रंग में घुलने मिलने को तैयार, ऐसी ही तो थी वो सरिता

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मानस का उस

विमलेश त्रिपाठी, अनमोल और विभाषचंद्र, तीनों बरबीघा के हटिया चौक पर खड़े आपस में गप्पिया रहे थे। तभी बस स्टैंड रोड की ओर से मानस आता दिख गया। विमलेश बोला, ‘देखना आज मानस क्या-क्या करके आया है उसी के मुँह से उगलवाता हूँ।’

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फिर वही शाम

शाम को कॉलेज से लौटकर रोज की तरह डॉ. सुहासिनी डाक देखने लगी तो एक लिफाफे पर दृष्टि टिक गयी...किसका पत्र होगा? प्रेषक के स्थान पर भी कुछ नहीं लिखा था।

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बे-इंसाफ का तोहफा

गोविंदपुर के निवासी रामनारायण का विचार था कि पढ़े-लिखे लोग कभी झूठ नहीं बोलते। वे लोग ज्ञानी और सभ्य होते हैं। अनपढ़ लोग ही ज्यादातर असभ्य होते हैं और उन्हें समाज के तौर-तरीकों का ज्ञान नहीं होता। इसी भावना से जब कभी उसके गाँव में कोई अफसर या पुलिस अधिकारी आता तो वह उनके साथ बड़े अदब के साथ पेश आता है। उसकी इज्जत करता और जरूरत पड़ने पर सेवा भी करता। अफसर ही नहीं बल्कि गाँव के लोग भी उसके इस शिष्ट व्यवहार पर खुश थे।

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घरौंदे

मैं उसे आश्वस्त करती हूँ कि मेरा लहजा तंज का होता है–समय की प्रतीक्षा करो सोफिया, फिर एक दिन तुम ही कहोगी–‘यह क्या हो गया इस शहर को यहाँ भाँति-भाँति के जीव रहने लगे हैं।’ ‘कब तक–समय तेजी से बीत रहा है। जब सब कुछ बदल जाएग तब–’ उसने आज भी उतनी ही उत्सुकता से पूछा था।

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