रेवती
दो पन्नों की चिट्ठी में लगभग एक ही जैसी बात, बार-बार घुमा-फिरा कर, लिखी रहती। पढ़कर ऐसा लगता था जैसे किसी ने कपूर की डली पर लपेटा हुआ कागज खोल कर सामने रख दिया हो। यादों की सुगंध से मन सुवासित हो उठता।
दो पन्नों की चिट्ठी में लगभग एक ही जैसी बात, बार-बार घुमा-फिरा कर, लिखी रहती। पढ़कर ऐसा लगता था जैसे किसी ने कपूर की डली पर लपेटा हुआ कागज खोल कर सामने रख दिया हो। यादों की सुगंध से मन सुवासित हो उठता।
स्मृति से अधिक महत्वपूर्ण है विस्मृति विस्मृति से बड़ा मरहम और कुछ नहीं। ‘याद कीजिए पापा...’ बेटा सामने खड़ा था और उनसे कह रहा था।
‘देखिए सिकंदर, आप ठीक साढ़े ग्यारह बजे पहुँच जाइएगा। यह समझ लीजिए कि यहाँ भारत या पाकिस्तान की तरह नहीं चलता है। अगर एक वक्त दिया जाता है तो पाबंदगी से उस पर अमल भी किया जाता है। आप मेरी बात समझ रहे हैं न?’ वे अपनी बात सिकंदर तक पहुँचाने का पूरा प्रयास कर रही थीं। सिकंदर भी थोड़ी झिझक और थोड़ी इज्जत की शर्म लिए खड़े थे, ‘बाजी अब आप ही देखिए न, साउथहॉल से फिंचले सेंट्रल तक आना कोई आसान बात तो नहीं न जी। रास्ते में नॉर्थ सर्कुलर पर भी गाड़ी चलानी पड़ती है। नॉर्थ सर्कुलर के ट्रैफिक से तो आप वाकिफ हैं न बाजी?’
आज मनप्रीत, हारी हुई सी, घर के एक अँधेरे कोने में अकेली बैठी है। वह तो आसानी से हार मानने वालों में से नहीं है। आज तो पूरा कमरा या पूरा घर ही पराजय का पर्याय सा बना हुआ है। सूना, अकेला, सुनसान सा घर! अभी कल तक तो घर में सब कुछ था–खुशी, प्रेम, विश्वास! हत्या हुई है! भावनाओं की हत्या! किंतु मनप्रीत ने कब किसकी भावनाओं का आदर किया है! अपने वर्तमान के लिये वह किसे उत्तरादायी ठहराये? वर्तमान कोई किसी साधु महात्मा द्वारा जादू के बल पर अचानक हवा में से निकाला हुआ फल या प्रसाद तो है नहीं! अतीत की एक-एक ईंट जुड़ती है तब कहीं जा कर बनता है वर्तमान!
कुछ डरते डरते वह बॉम्बे ब्रैसरी रेस्टोरेंट में घुसा। वैसे राजीव प्रसाद उसके साथ थे। वे अपनी मर्सिडीज में बैठा कर उसे अपने साथ ले गए थे। वरना इतने बड़े समारोह में वह आ भी कैसे सकता था। जब राजीव जी ने उससे पूछा था, ‘भाई नरेन जी आजकल नौकरी के क्या हाल चल रहे हैं?’ बस किसी तरह अपनी हिम्मत सँजोते हुए कुछ शब्द उसके मुँह से निकल पाए थे, ‘जी भाई साहब, लड़ाई चल रही है। वैसे रिडंडैन्सी का पत्र तो मिल गया है। यदि अगले सप्ताह तक कोई बात नहीं बनी तो बस नौकरी से बाहर ही समझिए।’
‘छोटी जान आजमगढ़ आ रही हैं।’ मोहसिन को महसूस हुआ कि अब दीवार में रास्ता बनाना संभव हो सकता है। भावज ने पोपले मुँह से पूछ ही लिया, ‘अरे कब आ रही है? क्या अकेली आ रही है या जमाई राजा भी साथ में होंगे? सलमान मियाँ को देखे तो एक जमाना हो गया है।...वैसे, मरी ने आने के लिये चुना भी तो रमजान का महीना!’ भावज की आँखों के कोर भीग गए।