बादल राग

इस दीवाली पर साथियों की सलाह पर विकास ने शहर की सभी शाखाओं और ऑफिस का एक ‘गेट-टूगेदर’ रखा। दीपावली की छुट्टी थी। सभी कर्मचारियों को बुलाया गया। चायपान की शानदार व्यवस्था की गई थी। अधिकांश लोग कुर्ते-पायजामे में और महिलाएँ साड़ियों में आई थीं। माहौल बहुत अच्छा था। पार्श्व में रविशंकर की सितार थी। आपस में अर्से बाद इस प्रकार का जमावड़ा हुआ था। बहुत जरूरी था अब के माहौल में। विकास सफेद कुर्ते-पायजामे में था। सबसे उत्साह से मिल रहा था। सभी कर्मचारी अपने परिवारों के साथ थे। बच्चों को बुलाया गया था। प्रीति भी गरिमा के साथ आई थी।

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स्वयंसिद्धा

जनवादी, समाजवादी, क्रांतिकारी कार्यकर्ता, तीन स्थानीय विद्यालयों के संस्थापक, महिला एवं बालोद्धार गैरसरकारी संस्था के अध्यक्ष - यानी कुल मिलाकर एक बहुआयामी सामाजिक व्यक्तित्व (नाम- सम्मान सिंह) सम्मान सिंह के…

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अनारो

यों तो नीलकंठ बाबू अपने गाँव की पूरी परिसंपत्ति बेचकर पक्के शहरी हो गये थे, पर गाँव के प्रति उनके मोहग्रस्त भावसूत्र टूटे नहीं थे। हम रोज प्रातःभ्रमण के बहाने…

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संबंध के पीछे

मंत्र की बात करने वाली औरत ने एक लंबी साँस खींची और होंठों में ‘ओम् नमः शिवाय’ का पाठ आरंभ कर दिया। मरीज के दायें-बायें लोहे के दो स्टैंड खड़े थे। एक पर खून की बोलत उलटी करके टंगी थी और कांच की नली से बूँद-बूँद करके रक्त एक बार रबर की नली में गिर रहा था। दूसरी ओर से इसी प्रकर ग्लूकोज की बूँदें गिर रही थीं। मरीज की आँखें टंग गई थीं और नाक में ऑक्सीजन की नली होने के बावजूद कठिनाई से सांसें खिंच रही थी।

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मंच

इधर लेखक की उद्विग्नता बढ़ती जा रही थी। कई रोज यूँ ही गुजर गए और वह कुछ लिख नहीं पा रहा था। जब भी लिखने बैठता राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ उसे दबोचने लगतीं। वह चाहता भी था कुछ ऐसा ही लिखना, जिसमें तीनों समस्याएँ आ जाएँ। मगर कहानी का प्लाॅट?

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घर

मैं आजतक मकान में रहता था। अब बुढ़ापे के पड़ोस में आकर अपने घर में रहने जा रहा हूँ। तीन दशक सरकार की गुलामी करते बीत गए। आज यहाँ, कल वहाँ। मैंने कभी अपना तबादला रुकवाने की कोशिश न की और न कभी पैरवी ही की। सोचा–जब गुलामी करता हूँ तो फिर मनमानी कैसी!

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