सभापति

मुन्ना बाबू ने तो सारी धारा ही बदल दी। रायसाहब खिल उठे। रुक्मिणी देवी ने गहनों तथा साड़ियों की खरीदारी का बाजार गर्म कर दिया। रायसाहब की धूल में मिली हुई प्रतिष्ठा फिर लौट आई। फैक्ट्रियों से उसी तरह रुपये बरसने लगे।

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कृष्णा और लारी

लारी काफी देर तक हमारी बेटी के यहाँ रही। बहुत सारे विषयों पर उससे बातें होती रहीं। बीच-बीच में जाने क्यों आज मुझे कृष्णा की बहुत याद आती रही।

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सोने का भाव

क्या कहूँ साहब! सोने का भाव मुझे भी तो सता रहा है! अमर के लिए जितने ग्राहक आते हैं–सभी से मैं भी तो यही सवाल करता हूँ। सोने के भाव इस कदर बढ़ रहे हैं कि मैं खाऊँ किधर की चोट, बचाऊँ किधर की चोट!

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रेशमी साड़ी

सब रस्में समाप्त हुईं और गाँव की स्त्रियों में शुहरत हो गई कि आज सिस्टर राजमुनी इतनी खुश थीं कि एक रात में तीन-तीन रेशमी साड़ियाँ बदलीं उन्होंने। वाह री किस्मत!

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विडंबनाओं के बीच

किरणमयी भी अपनी गिरहस्ती अलग ले जाने को अड़ी हुई है। वह भी उस चौके में खाना नहीं बनाती–बाजार से कुछ मँगाकर खा लेती। बीच में बेचारा अजीत पिस रहा है। एक ओर बीवी, दूसरी ओर भाई। खाऊँ किधर भी चोट, बचाऊँ किधर की चोट!

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