अपनी अपनी राह
आज पहाड़ी तराई में नदी के तट पर फिर आँखें चार होती हैं। बलदेव अकेला गंगा के तट पर बैठा है–अपने ही में खोया हुआ जैसे! अरुन के साथ एक गिरोह आ रहा है। कितने तो सर से पैर तक काट-पट में ऐन-फैन बन रहे हैं। जाने क्या-क्या सामान भी साथ है। मोटरों की तो शुमार नहीं।
आदमी की क़ीमत
हलुआ गरम, सूजी का हलुआ, घी चीनी का हलुआ’ गली में खोमचे वाले की आवाज और सुबह की धूप साथ ही उतरी। कातिक का महीना था।
परीक्षा की तैयारी
ओफ्फोह! यह चुड़ैल आज मुझे पढ़ने नहीं देगी! कोई झख इसके सिर पर सवार है। इसकी चिल्ल-पों के मारे पढ़ाई में मन ही नहीं लग रहा है।...बाप रे बाप!
सौंदर्य-संगीत
उसका घड़ा भर गया है शायद। उसने मेरी ओर देखा। मैं उसकी ओर देख रहा था, फिर भी लगा कि कोई नई घटना हो गई हो। वह मुस्कुराई। क्यों? इसलिए कि उसका यौवन यही आज्ञा देता है।
सुरख़ाब के पर
जाड़े के दिन थे और बेकारी की दुपहरी आने पर थी। घर में बैठे-बैठे तबीयत नहीं लग रही थी। इसी वक्त आ पड़े मेरे एक मित्र जिन्हें सुविधा के लिए मि. लाल कह लें। आते ही उन्होंने कहा, “शिकार में चलते हो?”