सुरख़ाब के पर
जाड़े के दिन थे और बेकारी की दुपहरी आने पर थी। घर में बैठे-बैठे तबीयत नहीं लग रही थी। इसी वक्त आ पड़े मेरे एक मित्र जिन्हें सुविधा के लिए मि. लाल कह लें। आते ही उन्होंने कहा, “शिकार में चलते हो?”
जाड़े के दिन थे और बेकारी की दुपहरी आने पर थी। घर में बैठे-बैठे तबीयत नहीं लग रही थी। इसी वक्त आ पड़े मेरे एक मित्र जिन्हें सुविधा के लिए मि. लाल कह लें। आते ही उन्होंने कहा, “शिकार में चलते हो?”
उसकी चमकती आँखों ने वृद्धा के चेहरे की एक-एक सिकुड़न पोछ डाली, वह उलझ गई विचारों की कड़ियों में
“दूर हट, कुलक्षणी! आखिर तूने छू दिया न मेरी पूजा की आसनी। आचमनी का पानी भी नापाक हुआ और भोग की मिठाइयाँ भी।”
जिस ओर वह जाता था, लोगों की पद-धूलि का मेघाडंबर घिर आता था, मानव-कंठों का निनाद गूँज उठता था, तूफान-सा आ जाता था, पर इनके बीच उसका ज्योतिर्मय अंतर उसी तरह अविकृत रहता था
उस दिन की ट्रेन-यात्रा में आराम से बेंचों पर बैठकर खुली खिड़की से प्राकृतिक दृश्यों का उपभोग करने का अवसर यात्रियों को नहीं मिल पाया था। भीड़, सो भी भयानक भीड़।
संसार की सृष्टि के बाद भगवान के सामने प्रश्न उठा, हर एक प्राणी को कितने वर्ष की आयु दे दी जाए? उसने पहले यह सोचा कि, सभी प्राणियों को समान वर्ष की आयु दे दी जाए। इसके बाद उसके सामने सबसे पहले गधा आ गया।