पाणिग्रहण
अपने इर्द-गिर्द से आ रहे विमर्श को जगरनिया के माई बाबू सुन रहे हैं। बात एक होती है लेकिन दिमाग अपने अनुसार आशय ढूँढ़ता है।
अपने इर्द-गिर्द से आ रहे विमर्श को जगरनिया के माई बाबू सुन रहे हैं। बात एक होती है लेकिन दिमाग अपने अनुसार आशय ढूँढ़ता है।
जब मंदिर के कपाट बंद करने का समय हुआ, तो बाबा छूरा छिपाए कुटिया से बाहर आए और भगवान शिव की प्रतिमा के आगे नतमस्तक होकर विनती की,
‘अब यार, झूठ के साथ सभी झूठे तो पड़ते ही जाएँगे ना!’ दूसरे ने उस आदमी के कंधे पर हाथ रखा और कहा–‘चल अब!’
‘जिंदगी भर तो घर का रास्ता याद आया नहीं!’–माँ ने उलाहना दिया। पिता कुछ नहीं बोल सके। आधे घंटे बाद जब गाड़ी रुकी, तो मैंने कहा–‘आप उतर जाइए!’
‘जब तक भव्य घटित होता रहेगा, गरीब कहानी से बाहर नहीं आ पाएगा और जमीर भी। शायद भव्य के धोखे ही जमीर में बदलते जाते हैं।
‘आपके सामने चार ऑप्शंस थे, दो आपने गँवा दिए! चाहे तो आप साढ़े छह लाख ले जा सकती हैं। वर्ना...सारे गरीब परदे के सामने बैठे थे। जेब में दस बीस-पचास रुपये रखे।