पछतावा

‘जिंदगी भर तो घर का रास्ता याद आया नहीं!’–माँ ने उलाहना दिया। पिता कुछ नहीं बोल सके। आधे घंटे बाद जब गाड़ी रुकी, तो मैंने कहा–‘आप उतर जाइए!’

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जाइएगा नहीं

‘आपके सामने चार ऑप्शंस थे, दो आपने गँवा दिए! चाहे तो आप साढ़े छह लाख ले जा सकती हैं। वर्ना...सारे गरीब परदे के सामने बैठे थे। जेब में दस बीस-पचास रुपये रखे।

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विदारक भाग्य

चारों तरफ अफरा-तफरी मची है। किसी की साँसें फूल रही हैं, कोई बुखार तो कोई दर्द से चीख रहा है। कहीं-कहीं विलाप फूट पड़े हैं।

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आख़िरी पहर

दो बरस कहीं निकलना, किसी से मिलना-जुलना क्या बंद हुआ, ज़िंदगी का ताप ही चला गया। सब पर बुढ़ापा आ गया। वैसे तो पार्क इत्ता सुंदर है, इत्ता बड़ा। पीछे हरे-हरे घासों का बड़ा मैदान। उतना ही घूम लें तो बहुत है।

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साँप

शर्ट-पैंट फाड़ने के बाद भीतरी वस्त्र भी नोच फेंके गए। शिल्पा ज्यों-ज्यों अपने गठीले बदन और मछलियों की-सी मांसपेशियों को फुरती से झटकती, त्यों-त्यों चारों ओर से दबाव बढ़ता ही चला गया। उसका तड़पना, छटपटाना भी काम न आया।

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