तोता पंडित
जोरावर सिंह का दिमाग एकबारगी खाली हो गया। डी.वाई.एस.पी. के रूप में यह उनका पहला छापा था और पहला ही फुस्स!
जोरावर सिंह का दिमाग एकबारगी खाली हो गया। डी.वाई.एस.पी. के रूप में यह उनका पहला छापा था और पहला ही फुस्स!
आज दिनभर एक नदी बहती रही थी मेरे भीतर। मन फुँकता रहा था आवेग की तरह और भीतर में एक सन्नाटा पसरा हुआ था, रहम की तरह। फिर शाम दर्द से टूटी हुई लकड़ी की तरह आई थी और मेरे करीब बैठ गई थी।
तभी रोहित के जायज-नाजायज हर तरह के ताने यूँ अनसुना कर देती मानो पी-एच.डी. की डिग्री मैंने मेहनत से नहीं वरन कहीं से मोल ली हो!
अगस्त महीने की यह एक ऐसी सुबह थी जिसकी पूर्व कल्पना किसी ने नहीं की थी। बारिश रुक-रुक कर होती थी या नहीं होती थी। हफ्ते-दस दिनों बाद जोर की वर्षा होती और कॉलोनी का निचला हिस्सा पानी से भर जाता।
मैंने नहीं देखा कि कैसे थे पिता। माँ ही बताती थी कि मेरे पिता बहुत सुंदर और बहुत मेहनती थी। माँ यह भी बताती थी कि पिता मेहनती तो इतने थे कि सारे-सारे दिन काम करने के बाद रात में भी काम करते थे।
यह अप्रैल 1540 की बात है। हुमायूँ अपनी किस्मत आजमाने और शेरशाह से दोबारा दो-दो हाथ करने कन्नौज के निकट बिलग्राम आ धमका, भारी लाव-लश्कर के साथ। वह गंगा के इस किनारे पर आकर ठहर गया। शेरशाह ने भी गंगा के दूसरे किनारे पर अपना शिविर लगाया और उसकी चारों ओर मिट्टी की दिवारें खड़ी कर दी।