स्वर्ग की सीढ़ी
भोर हो चुकी थी, मन ही मन ईश्वर का नाम लेती गोदावरी देवी बालकनी में बैठी स्वर्णिम समय का आनंद लेतीं निर्निमेष दृष्टि से सामने निहार रही थी।
भोर हो चुकी थी, मन ही मन ईश्वर का नाम लेती गोदावरी देवी बालकनी में बैठी स्वर्णिम समय का आनंद लेतीं निर्निमेष दृष्टि से सामने निहार रही थी।
रात में दीनानाथ ने अपनी पत्नी से कहा–‘अब हम अपने मकान में रहते हुए पूरे सौ वर्ष जिएँगे।’ उनकी पत्नी ने हँसकर कहा–‘सिर्फ सौ वर्ष ही क्यों?
मीडिया पर खबरें छाई हुई थीं। देवकीनंदन त्रिपाठी ने सुना तो सन्न रह गया था, ‘कौन मरवा दिया सुजतवा को।’
मेरे हाथ में पोटली थी, जिसमें वंश की धरोहर हँसुली हार थी। कभी उस हार को देखता, तो कभी बाबू को!
वे उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकते थे। लेकिन, ऐसी प्रतीकात्मक ऑनर किलिंग से उन्हें जाने कैसा क्या संतोष मिला होगा।
‘भइया सतेन्द्रपाल ने जीवन भर समाज का साथ नहीं दिया। समाज रूपी डार से टूटे हुए लोग हैं ये! फिर आज समाज उनका साथ क्यों दे?’