सोलह दिनों का सफर
जितना शायद वह इन इक्यावन सालों के वैवाहिक जीवन में नहीं टूटी उससे ज्यादा इन सोलह दिनों में टूट चुकी थी।
जितना शायद वह इन इक्यावन सालों के वैवाहिक जीवन में नहीं टूटी उससे ज्यादा इन सोलह दिनों में टूट चुकी थी।
उसके अंदर की माँ जगी तो तवायफ का अंत हो गया और माँ ने बच्चों के लिए अपना बलिदान कर दिया। गोपाल और राधिका फूट-फूटकर रोने लगे।
उसके मन में पहले असहमति ने जन्म लिया फिर उसने उस भाव को झटका और अंततः स्वीकृति में सिर हिला दिया।
पाप-पुण्य के फेर में पड़ते जा रहे सीमांत को पुजारी घर से बाहर आते-जाते वक्त ‘कलम का पाप’ याद दिलाता रहता।
मैं-कृष्णदेव हक्के-बक्के थे, पर कहीं गहरे संतोष में भी थे। ‘अरुन्धती, आज के शब्दों में ‘निर्भया’ होने से बच गई!’
कहावत है न, ‘आयल पुन आयल दुःख कमाये लागल पुन, भागल दुःख।’ फिर तो दोनों ठहाका लगाकर हँसे थे। पाँच-पाँच बच्चे, फिर भी ठहाका! जैसे लड़के सब कमासुत हों...।