कलम का पाप
पाप-पुण्य के फेर में पड़ते जा रहे सीमांत को पुजारी घर से बाहर आते-जाते वक्त ‘कलम का पाप’ याद दिलाता रहता।
पाप-पुण्य के फेर में पड़ते जा रहे सीमांत को पुजारी घर से बाहर आते-जाते वक्त ‘कलम का पाप’ याद दिलाता रहता।
मैं-कृष्णदेव हक्के-बक्के थे, पर कहीं गहरे संतोष में भी थे। ‘अरुन्धती, आज के शब्दों में ‘निर्भया’ होने से बच गई!’
कहावत है न, ‘आयल पुन आयल दुःख कमाये लागल पुन, भागल दुःख।’ फिर तो दोनों ठहाका लगाकर हँसे थे। पाँच-पाँच बच्चे, फिर भी ठहाका! जैसे लड़के सब कमासुत हों...।
वह तो एक आम नेक पुत्री-सी नित्य हाथ जोड़ पिता की आत्मा हेतु न्याय पाने हेतु नित्य प्रार्थना करती है। उसे यह नहीं ज्ञात है कि उसे कितने-कितने समय बाद न्याय मिलेगा या फिर मिलेगा भी कि नहीं!
उसे ब्लँकेट भेजनेवाले ज्योबाबा की, फोटो में दिखाई देनेवाले उनके घर की, ब्लँकेट की याद आई। वह व्याकुल हो गया। दुःखी हो गया। उसे लगा, वह एकदम निराधार हो गया।
गजेंद्र कहते-कहते रोने लगा था और उसने पुनः कहा–‘भाई साहब! आप कुछ रास्ता निकालिए और मेरे परिवार को सुरक्षित कीजिए, जिससे मेरी आत्मा को सुकून मिल सके।’