पेड़
सफ़र में पेड़ नज़र नहीं आते थके पाँवों को ठाँव नज़र नहीं आते राहें तो अब अभी बदस्तूर हैं सड़क हैं राहगीर नज़र नहीं आते
सफ़र में पेड़ नज़र नहीं आते थके पाँवों को ठाँव नज़र नहीं आते राहें तो अब अभी बदस्तूर हैं सड़क हैं राहगीर नज़र नहीं आते
धाराएँ सदा एक-सी नहीं होतीं कई बार उसकी ध्वनियाँ आर्त्त-नाद होती हैं सहमी तरंगों की सूखते जल गवाह हैं
जैसे काटे गए पेड़ की जगह का ख़ालीपन एक दिन पूरी कहानी कह देता है पेड़ के बड़े होने और पत्तों से भरने की फूलने और फलने की तमाम तस्वीरें बीते दिनों की एकाएक कौंध जाती है
भुट्टे के दानों के बीच जो बह रही थी दूध की नदी वह अब इतनी पुष्ट और ठोस हो गई है कि भूख मिटा सकती है अकाल में
एक-एक पल जो लगता है साँस की तरह ज़रूरी कुछ ही दिनों में उसकी याद धुँधली पड़ जाती है धब्बे में बदल जैसे सालभर पहले की भादों वाली रात या पिछली बारिश में जूतों में पानी फैलने की ठंड
हूँ निराशा के क्षणों को भोगता मैं अंध कूपों में पड़ा निर्जन जगत में अँधेरे में बहुत गहरा गया हूँ एक ठूँठा वृक्ष-सा सून सान टीले पर अँधेरे में घिरा…