बसंत के इन फूलों पर

सोने की तरह चमके हैं उनके मस्तक पर मैं सर में रखे उस टोकरे का क्या करूँ जो अब भी गंध फेंक रहा है जस का तस और धोई जा रही है दीक्षा भूमि जो गंधा उठी है देहों के स्पर्श से

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तुम्हारे साथ रहूँगा

जानता हूँ, उस वक्त भी तुम गाली दोगी, दुर्दुराओगी गुस्सा होओगी, भगाओगी पर मैं तुम्हारे साथ रहूँगातुम्हें, छोड़कर जाने के लिए तुम्हें प्यार नहीं किया है साथ रहने के लिए प्यार किया है

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क्रांति समय में

क्रांतियाँ निष्फल नहीं होती बलि माँगती हैं खून को पसीना बनाकर आपको बेहतर मनुष्य होने का अहसास करवाती हैंक्रांतियों से कुछ लोग सिखते हैं कुछ डरते हैं कुछ वज्र मूर्ख होते हैं –मरते हैं

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सीढ़ियाँ

मजदूर इस्तेमाल करते हैं सीढ़ी सीढ़ी और बीड़ी मजदूर के ही काम आती है कभी किसी नाटक में मंच पर दिख जाती है कोई सीढ़ी अभिनेता जिससे कई तरह के काम लेते हैं बैठते हैं दौड़ते हैं खड़े हो जाते हैं उस पर लुकाछिपी का खेल खेलते हैं

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कितनी चाह कितने रंग

सो चलते रहे पाने-खोने के खेल में हारते और हाथ मलते रहे अटके हुए भटके हुए जहाँ पहुँचे, जहाँ ठहरे वहाँ अपने हिस्से बस इक आह थी जिसे बार-बार बनाना चाहा

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सच

यह सच है कि सच के बहुत सारे पहलू होते हैं लेकिन इतना उलझा हुआ भी नहीं होता सच जितना उसे बना दिया जाता है वह तो निरीह, सीधा-सादा अपनी राह चलने वाला होता है।

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