मैं जब खामोश होता हूँ
मैं जब खामोश होता हूँ तो सूरत चीख उठती है बहुत ज्यादा छिपाने से हकीकत चीख उठती हैकई सदियों तलक तो देखती रहती है चुपके से मगर इक रोज़ इनसानों पे कुदरत चीख उठती है
मैं जब खामोश होता हूँ तो सूरत चीख उठती है बहुत ज्यादा छिपाने से हकीकत चीख उठती हैकई सदियों तलक तो देखती रहती है चुपके से मगर इक रोज़ इनसानों पे कुदरत चीख उठती है
कोई शायर कभी भी बात बचकानी नहीं लिखता कभी शोलों को अपने हाथ से पानी नहीं लिखता जो सूली पर सजाई सेज़ पर सोने को आतुर हो मैं क्या लिखता अगर मीरा को दीवानी नहीं लिखता
माँ बूढ़ी हो रही पिता भी बूढ़े हो रहे चुभता है प्रकृति का यह नियम चुभती है उनकी बढ़ती शारीरिक शिथिलता मैं खुद को देखती हूँ
तुम्हारे मुट्ठी भींच लेने और आँखें बड़ी करने से अब न आत्मा डरने वाली और न एक स्त्री का शरीर तुमने रुई के फाहों सा नरम पाया था उसे पर उन्हीं कोमलाँगियों पर
पत्ते झर रहे हैं फूल सुख चुके हैं मगर कुछ फल बचे हैं पेड़ों की शाख पर जिन्हें तुम शायद गिन सकते हो। तुम गिन सकते हो प्रकृति के सारे मौसमों को
अरे! कब तक अलापते रहोगे एक ही राग कब तक इस दंभ में रहोगे तुम्हारे कदमों से आगे कोई कदम बढ़ नहीं सकता तुम्हारी पोटली से भारी दूसरों की नहीं हो सकती और तुमसे ज्यादा मॉडर्न तो कोई हो नहीं सकता