प्रेम से ही उपजते हैं

लिखा जा रहा है बहुत कुछ पर मैं लिखती रहूँगी सिर्फ प्रेम क्योंकि मुझे पता है दुनिया के सारे विमर्श प्रेम से ही उपजते हैं और एक खूबसूरत दुनिया को बचाये रखने के लिए बहुत जरूरी है हमारा प्रेम में पड़े रहना।

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कभी तो टोह लेते

कभी तो टोह ली होती उस मन की सुना होता अंतर्नाद जो गूँजता रहा निर्बाध आपादमस्तक अनसुना सा रहा आदि काल से दमित, तिरस्कृत, विदग्ध सदियों तक...कभी तो खोलते ग्रंथियाँ बंद मुट्ठियाँ जिनमें उकेरे गए थे सिर्फ शून्य रेखाएँ तो उभर आई थीं परंतु केवल भाल पर सिलवटें बन...

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यार जुलाहे

यार जुलाहे मुझे भी सिखा दे चुनना और बुनना। कैसे चुनता है तू एक-एक धागा कैसे बुनता है तू सुंदर चदरिया।तू मुझे ये भी सिखा क्या बुनने से ज्यादा अहम है चुनना। मैं भी चाहता हूँ बुनना एक कविता जिसमें हो प्रेम की कढ़ाई भावों की तुरपाई संवेदनाओं की सीवन और सुंदर सा जीवन। पर मैं बुन नहीं पाता

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मैं पत्रकार हूँ

मैं पत्रकार हूँ! शब्द हैं मेरी आत्मा और खबर मेरी आवाज मस्तिष्क मेरा संपादकीय समीक्षा मेरी आँख! फीचर मेरे कान हैं विश्लेषण मेरी नाक मैं सच और झूठ का जानकार हूँ मैं पत्रकार हूँ!

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सावधान-सावधान

बाँध-पुल और सड़कों के नाम पर अंधी दौड़ दौड़ोगे मैं फिर नोचूँगी तुम्हारा चेहरा और फिर छोड़ूँगी ऐसे ही निशान! सावधान! सावधान!

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