मन में संदूक

मैंने मन के कोने में एक संदूक छिपा रखी है दिन प्रतिदिन होती जा रही है यह और भी भारी इसमें है कुछ शब्द जो हर बार कहने पर भी बात रह जाती है अधूरी

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आश्वस्ति के बादल

नष्ट कर दिए गए हैं आश्वस्ति के बादल नहीं जाना उस राह मुझे जहाँ है सिर्फ अनुरक्ति के दलदल मौन हूँ विच्छेद हूँ सब रिश्तों से विभेद हूँ समय ने तोड़ा अपनो से झंझोड़ा-मोड़ा फिर भी, मैं सब से जुड़ी रही तुम्हें मन ही मन गुनती रही

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रेतीले टीले

रेतीले टीले उपेक्षा, अवज्ञा, अस्वीकृति से क्या डरना एक अनजान भय कि छतरी को खोल कर क्यों चलना जीवन के मोड़ सड़कों की तरह स्पष्ट नहीं होते कोई सूचना पट भी नहीं लगा होता कि आगे तीव्र मोड़ है रफ्तार धीरे कर लें

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