देह की गंध
गुलों की पंखुड़ियों से भँवरों की खिलवाड़ जारी है अरब के हैं इत्र बेमिसाल लेकिन उनकी देह की गंध न्यारी है
गुलों की पंखुड़ियों से भँवरों की खिलवाड़ जारी है अरब के हैं इत्र बेमिसाल लेकिन उनकी देह की गंध न्यारी है
जो दे नहीं सकती किसी मुँह को निवाला मेरा वजूद है चाँद हो जाना... और तपते दिन को सुकून दे जाना
मन भर धूल फाँक कर तुम इसी तरह जागते रहो। मैं इसी तरह भागता रहूँ तुम इसी तरह भागते रहो, मैं इसी तरह जागता रहूँ।
एक पूरी, धकापेल तू भी क्यों नहीं चढ़ गया एक नक़द बारहखड़ी तू भी क्यों नहीं पढ़ गया? ‘मन पछितैहें अवसर बीते’
‘ओ बेपीर पीर, मैं हारी जाने दे, मैं हूँ अधमारी।’ भर बाजार अदालत सारी चाट रहे हैं ठग-पिंडारी!