सपने
हर व्यक्ति अपनी जगह से आगे बढ़कर देखता है मल्लाह नदियों के सपने देखते हैं नदियों के स्वप्न में मछलियाँ नहीं समुद्र आता है
हर व्यक्ति अपनी जगह से आगे बढ़कर देखता है मल्लाह नदियों के सपने देखते हैं नदियों के स्वप्न में मछलियाँ नहीं समुद्र आता है
हर रात एक अलविदा कहती है हर दिन एक निरंतर परहेज में तब्दील हुआ जाता है क्या यह आख़िरी बार होगा जब मैं तुम्हारे देह में लिपटी स्निग्धता को महसूस कर रहा हूँ
धूल में नहाए शैतान बच्चे खेल रहे हैं घरौंदा-घरौंदा। जोड़ रहे हैं ईंट के टुकड़े, पत्थर, सीमेंट के गुटके बना रहे हैं नन्हे-नन्हे घर हँस रहे हैं, तालियाँ पीट रहे हैं।
वे धूप की कतरनों पर फैलती हैं तो उठती है, हल्दी और सरसों के तेल की पुरानी सी गंध। गौने में आई उचटे रंग की साड़ियाँ बिछ जाती हैं महुए की ललायी कोपलों की तरह जड़ों की स्मृतियों पर।
मधु-ऋतु-रात, मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खो ली, खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली–बनी रति की छवि भोली।
धूप के शब्दकोष में खोजी-जुगनू के न दिख रहे श्रम की कवितालमसम की कवितान उँगली को पकड़ती सीढ़ीयाँ चढ़ती न मोर्चा खड़ा करने को दौड़ती-हाँफतीऐनक सुधारती कविता बटन टाँकती