प्रेम
ईर्ष्या की आँच में जल रही है संसृति। हाँ इसी तरह जलते-जलते एक दिन पूरी सृष्टि जल जाएगी। सब समाप्त हो जाएगा फिर ना कोई ‘मैं’ और न कोई ‘तुम’
ईर्ष्या की आँच में जल रही है संसृति। हाँ इसी तरह जलते-जलते एक दिन पूरी सृष्टि जल जाएगी। सब समाप्त हो जाएगा फिर ना कोई ‘मैं’ और न कोई ‘तुम’
जब-जब मानव परछा जाते हैं संकट के बादलहूंकार करता हुआअपना विकराल रूपदिखलाता– करता प्रहारतो, बारिश की बूँदों साकर्म रत
तांडव कर रही थीं उसके अंतर्मन की परछाइयाँ और शांत मुख मंडल तेज धड़कन गहरी आँखें सपाट ललाट सभी विद्रोह कर रहे थे
रात के गहराते ही जब शिथिल पड़ जाती हैं इंद्रियाँ बढ़ जाता है दर्द सुई सी चुभती हैं यादें और उन यादों में लिपटा अतीत जहाँ मैं निःसहाय दिखती थी
जब तक आप कविता लिखते रहते हैं न जाने आपने ध्यान दिया है कि नहीं– फन फैलाए साँप घूमता ही रहता है आसपास फुफकारते हुए सृजन के क्षणों को डंसने की जन्म लेते ही अक्षर को मारने की भरसक कोशिश करते हुए
‘प्यार ही तो है इस संसार के लिए जरूरी साधन’ यह घोषणा करने के लिए मस्जिद और मंदिर की तरह नहीं इंसानों की तरह करते ही रहेंगे कोशिश।