सपने में गाँधी जी
अपने जर्जर शरीर को सँभाल नहीं सके गाँधी जी वहीं गिर पड़े हैं गाँधी जी, बा उठा रही हैं उनको, लेकिन गाँधी जी, उठ नहीं रहे हैं!
अपने जर्जर शरीर को सँभाल नहीं सके गाँधी जी वहीं गिर पड़े हैं गाँधी जी, बा उठा रही हैं उनको, लेकिन गाँधी जी, उठ नहीं रहे हैं!
हंसिया, दरांती खंभे के एक सिरे पर हाथ दूसरे पर बाँधकर अपना पैर हमने बना लिया है सेतु अपनी ही देह पर चढ़कर हम पार कर रहे हैं गंगा सागर!
हमें अपने से ही जतन करना था, अक्षत और दूब अपने से ही भरना था खोइंछा, सँभालना था अँचरा खुद ही रोना और खुद को ही चुप कराना था और इसी तरह विदा होना था
बाँसों में उत्पन्न सरसराहट से जाग उठता मधुरमय नवगीत, सीप में छिपे जीव झिंगुर संग करते नृत्य, पूर्वोत्तर का है परिवेश जहाँ बसा है बाँसों का प्रदेश।
ऐसे कह दे कोई जैसे प्रथम प्रेम आखर, समर शेष में पलकों को मूँदें स्वयं को कोसती! फिर देती प्रेम परिमाटी को उलाहने हजार...
पने माता-पिता के विरुद्ध जाकर कि तुम स्त्री समानता के पक्षधर हो तुम मुझे पूरा सम्मान दोगे मैं गलत थी या तुम सही हो?