विरक्ति
बंद दरबाजे खुलेंगे अब नहीं भाव भँवर गूँज से अब न कोई खंड ऐसा है बचा प्यार की जो बात तुमसे कर सके
बंद दरबाजे खुलेंगे अब नहीं भाव भँवर गूँज से अब न कोई खंड ऐसा है बचा प्यार की जो बात तुमसे कर सके
एक अकेला पक्षी-सा वह क्षितिज छोर के शून्य लोक में आश्रय पा लेने जीवन का उम्मीदों के ज़द में खोकर
मन के हर दु:ख-दर्द को भीतर-ही-भीतर मोड़ती है औरतें एक छलावा ओढ़ती है औरतें
बह सकूँ वादियों में निस्सिम सी मैं बाँसुरी का राग हूँ मैं मन की वो आवाज़ हूँ सुबह की पाक
मेरे नाविक चलो वहाँ अब जहाँ नहीं हो कोई अपना, पर रुकना उस तट पर ही तुम जहाँ खड़ा हो मरुभूमि में
संपूर्ण समर्पण सा वज्र के लिए दधीचि होना मर्मान्तक पीड़ा सा दधीचि का वज्र होना... चलती हैं दोनों क्रियाएँ जन्म भर...! नियति बस हँसती है नियन्ता वो नहीं निर्भर करता…