धरती
तुम्हारे होने भर से धरती महसूसती थी अपनापन और प्यार ऐसा कि तुम हो अपने धरती पर बरसाने वाले स्नेहहीरा-मोती तुम जोतते थे मुझे तो लगता था कि रूई के फाल से
तुम्हारे होने भर से धरती महसूसती थी अपनापन और प्यार ऐसा कि तुम हो अपने धरती पर बरसाने वाले स्नेहहीरा-मोती तुम जोतते थे मुझे तो लगता था कि रूई के फाल से
आओ मिलकर जलाएँ एक दीया भारत माँ के नामदेश के जन-जन की है यही पुकार अब नहीं जलाएँगे चाईनीज दीये, बल्ब और लड़ियाँ अब तो जलाएँगे सिर्फ अपनी माटी से बने दीये वे दीये, जिसे बनाए हैं हमारे कुम्भकारों ने अपने श्रम से अपनी मेहनत से
मेरे गोईं ने किया था एक दिन देहचोरई, अब वह भी निराश और हताश है आपके चले जाने से मालिक, आपको मालूम है कई दिनों तक खल्ली और भूँसा नहीं मिलने पर भी
दशरथ माँझी पहाड़ से भी है ऊँचा जिसे देखकर पहाड़ के उड़ जाते हैं होश दशरथ माँझी सिर्फ तुम्हारा नाम ही है काफी पहाड़ को थर्राने के लिए क्योंकि तुम्हारे अंदर बसी है फागुनी देवी जैसे आगरे की ताजमहल में मुमताज
दूर तक जाती हुई बलखाती, मटकती-सी, ये सड़क जो कि हमें वहीं छोड़ देती थी, एक-दूजे के पास एक-दूजे के साथ
ऐसे दिन थे बहुत चिरैया घर आती थीं गाने कुछ ताने दादी देती थीं कुछ अम्माँ के ताने। फिर भी निसि-दिन डाले जाते थे आँगन में दाने। कर्ज़े लदे हज़ार…