ऐसे दिन थे

ऐसे दिन थे बहुत चिरैया घर आती थीं गाने कुछ ताने दादी देती थीं कुछ अम्माँ के ताने। फिर भी निसि-दिन डाले जाते थे आँगन में दाने। कर्ज़े लदे हज़ार…

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चाँदनी चौक

गँठरी में मैं बाँध खेत-खलिहान उठाकर लाया हूँ। लोग बताते हैं अब मेरा प्रेत गाँव में बसता है किसी आम-बरगद के नीचे खड़ा अकेला हँसता है। मैं चाँदनी चौक में अपना गाँव खोज बौराया हूँ।

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सुनो, कबीरा कोरी

कहा, कबीरा ने रे पंडित बाद-बदंते झूठा... इसी बात पर दुनिया रूठी सारा काशी रूठा। बाबा, मैं पंडित घर-जारा मैंने झूठ न बोला सच कहने-करने की धुन में साधू चला अकेला।

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एक और अमानवीय चेहरा

बाज़-दफा खबरों से दूर रहने का कौल उठाता हूँ और थोड़ी ही देर में मेरी अँगुली की एक हरकत मात्र से स्क्रीन पर एक और अमानवीय देश का भयावह चेहरा उभर आता है!

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दरिया

समंदर भी मेरे जैसे कई दरियाओं से बना है! जब मैं नहीं, तो समंदर भी नहीं इसीलिए कहता हूँ– पहले दरिया बनो तभी तो समंदर भी बन सकोगे!

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वह लड़की

आरोपित कर रही है वह लड़की समाज के कई शरीफों को कई संपन्न घरानों के परिवारों की उड़ा डालीं हैं नींदे दबंगों की धमकियाँ उसके भीष्म संकल्पों से टकरा कर चकनाचूर हुई जाती हैं

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