हाड़ पुरखों के

पिता कभी-कभी कहानी-सा बताते उनके दादा, पिता स्वर्ग रथ पे सवार होकर गए और उनकी चिताओं की राख भी हम बहा आए थे संगम में और सब संगम के पानियों के संग जमना में बही या गंगा संग बहती चली या सब सरस्वती सरीखी जज्ब हो गई

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काली चाय खौल रही है

मुर्गों ने नहीं दी बाँग दूध के बगैर काली चाय खौल रही है केतली में रहमान को आवाज देते लब आज चंचल को देते हैं हिदायत आज दो कप ही लाना तीन नहीं

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गुल्लक

शताब्दी खड़ी है सम्मुख देना पड़ रहा है हिसाब अपनी जमा राशि का ही नहीं उन मुस्कुराहटों का भी जब पापा दफ्तर से लौटकर रेजगारियाँ धर देते थे मुस्कुराहट के संग देखने को आतुर रहते चुन्नू की मासूम मुस्कुराहट

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बसंत के इन फूलों पर

सोने की तरह चमके हैं उनके मस्तक पर मैं सर में रखे उस टोकरे का क्या करूँ जो अब भी गंध फेंक रहा है जस का तस और धोई जा रही है दीक्षा भूमि जो गंधा उठी है देहों के स्पर्श से

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तुम्हारे साथ रहूँगा

जानता हूँ, उस वक्त भी तुम गाली दोगी, दुर्दुराओगी गुस्सा होओगी, भगाओगी पर मैं तुम्हारे साथ रहूँगातुम्हें, छोड़कर जाने के लिए तुम्हें प्यार नहीं किया है साथ रहने के लिए प्यार किया है

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क्रांति समय में

क्रांतियाँ निष्फल नहीं होती बलि माँगती हैं खून को पसीना बनाकर आपको बेहतर मनुष्य होने का अहसास करवाती हैंक्रांतियों से कुछ लोग सिखते हैं कुछ डरते हैं कुछ वज्र मूर्ख होते हैं –मरते हैं

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