संवेदना के सूखते दरख़्त
उत्तरआधुनिकता की लपेटे हुए चादर आज का समय धीरे-धीरे बढ़ रहा
उत्तरआधुनिकता की लपेटे हुए चादर आज का समय धीरे-धीरे बढ़ रहा
नेपथ्य के वादक थोड़ा झिझक रहे थे पतझर से पृथ्वी सो रही थी पहाड़ से चिपककर भय में तुमने कहा कि मेरा वादक पहले सोई पृथ्वी को जगाए
कोई-न-कोई रंग है हरा काला उजला नीला बैंगनी चंपई गेहूँवा भंटई रंग
इन अभागे दिनों में कलाकार के कपड़े फटे हों जब मैं कैसे जगा दूँ सोई हुई पृथ्वी को सपने देखते पहाड़ को और यह भी कि मेरा समय रेत से घिरा है पानी से नहीं
तमस-आवरण भेद देता है अँधेरे का अंतस्तल निर्निमेष झाँकता बढ़ता है किंतु अँधेरे का राज्य अब भी बना हुआ अप्रमेय
यहाँ आरा मशीन चलती है तो लकड़ी के चीरने की आवाज़ इसके-उसके कानों तक पहुँचती रहती है निरंतर जिस तरह रेलगाड़ी के गुजरने की आवाज़