गिलहरी के बहाने

गिलहरी दौड़ती है जाना चाहती है रस्ते के उस पार पता नहीं जिंदगी की तरफ या मौत की तरफपर वह दौड़ती है एकदम आ जाती है अचानक सामने मौका भी नहीं देगी बचने बचाने का दब जाती है पहिए के नीचे

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काव्य शिशु

एक बच्चा घुटनों के बल चलता खड़ा होने की कोशिश में बार-बार गिरता बार-बार उठता लोग तालियाँ बजाते हैं उसे उँगली पकड़ चलना सिखाते हैं कुछ लोग देने को अच्छे संस्कार उसे ‘बालोहं जगदानंद...’ रटाते हैं।

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दृष्टि

अभी अभी तो डाली थी भावनाओं के आँगन में भरोसे की नींव! देखने लगी थी आजादी के सपने सघन भीड़ में तुम लगे थे अपने तुमने भी तो कोताही नहीं की

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नेहपाश

एकांत प्रहर में अकसर मेरे भीतर कला खदबदा तीस्वप्न कुलबुलाते नूतन कल्पनाएँ लेकर किसी श्वेत, मूक कागज़ कोकला रेखाओं से भरना

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