चिट्ठियाँ
चिट्ठियाँ आने परहुलस उठता था मनघर का कोना-कोनादौड़-दौड़ कर आ बैठता था पिता के पासदीवारें सुनने लगती थीं कान लगा कर
चिट्ठियाँ आने परहुलस उठता था मनघर का कोना-कोनादौड़-दौड़ कर आ बैठता था पिता के पासदीवारें सुनने लगती थीं कान लगा कर
अंदर जाने का समय हो गया खुल गया, प्रवेश द्वार मैं बैठ गई अपनी सीट पर पर्दा धीरे-धीरे उठ रहा है नाटक का सूत्रधार
मुझे मिल गया है टिकटअब प्रवेश द्वार पर कोई रोकेगा नहीं सरसराते हुए चली जाऊँगीशुरू होने वाला है रंगशाला में नाटक।
अच्छा, अल्लाह के रक्षक हो! नहीं, अहंकार की इंतहा हो! ‘शार्ली एब्दो’ को गोलियों से भून दियातो क्या वे सभी मर गए ? नहीं
कहाँ गए मिट्टी के बरतनअब गाँव में भी नहीं दिखते कहीं नहीं दिखतीचूल्हे पर चढ़ी हांडी न पनघट या कुएँ अथवा नल के घड़े
मैं मुक्तिबोध नहीं, न ही शैलेश मटियानी हूँ मैं न ‘वाम’ में, न दक्षिण में और केंद्र में भी नहीं.....