जिसे चाहता हूँ भाषा में

मैं हूँ और तुम भी मेघ हैं और समंदर भी पहाड़ है और समतल भी... होगी तो जरूर कहीं न कहीं ऐसी भाषा भी जिसमें रोना चाहता हूँ मनुष्य की तरह मनचाही देर तक।

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शांतिः शांतिः शांतिः

कैसे हैं ये जख्म इन कविताओं के जो बहुत ऊँचा उठ नफरतों से, द्वेषों से उठाए हाथ बस कर रहे हैं पाठ... शांतिः शांतिः शांतिः ।

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कहीं तो सच है

बीच राह में तब... ऐसी ठोकर लगी कि मेरे पाँव से रिसते रक्त की बूँदे, रेत पर धँसती चली गई और इस रक्त की गंध उड़कर– आसमान में फैल गई तब शायद्...मैं उस आसमान को निहारना भूल गई थी

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पुरानी फ्रॉक

जब से मालकिन की बेटी ने उसे पुरानी फ्रॉक दी है, उसकी खुशी का ठिकाना नहीं उसे याद आई कितना खुश थी उसकी माँ जब मालकिन ने उन्हें पुरानी साड़ी दी थी

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