कविता नीर
जितना छोटा होगा उतना-उतना ही होगा घातक वह तीर, जो, जरा भी नहीं जहर बुझा किंतु कविता–नीर।
जितना छोटा होगा उतना-उतना ही होगा घातक वह तीर, जो, जरा भी नहीं जहर बुझा किंतु कविता–नीर।
अगर वाकई सब कुछ ठीक-ठाक होता और सकुशल और हर चीज में दिखाई देता स्पंदन तो फिर क्यों होता जन्म कविता का इस संसार में?
माननीय सांसदों, विधायकों, नेताओं, सबके चहेते महामहिम अपराधियों! आप सबके प्रति मैं आभार प्रकट करता हूँ धन्यवाद देता हूँ
फिर फागुन आ गया डह डह डहका पलाश परदेशी अँखियन में बन अँगार लाल लाल छा गया
ट्रेनें चला करती थीं देरी से लाइनें होती थीं सिंगल जब तक एक गाड़ी दूसरे स्टेशन पर पहुँच न जाती
स्मृतियों में बचपन की बारिश का दखल अब भी बचा बसा है इतना सघन बरजोर कि भीग जाता है जब तब उसकी नर्म गुदगुदी से सारा तन मन