स्त्री देह का उत्सव
भूमंडलीकरण के इस दौर में पश्चिम की तमाम उत्सवधर्मिता हम चाहे अचाहे कर रहे हैं आयातित अपने बुद्धि विवेक को ताखे पर रखकर भी
भूमंडलीकरण के इस दौर में पश्चिम की तमाम उत्सवधर्मिता हम चाहे अचाहे कर रहे हैं आयातित अपने बुद्धि विवेक को ताखे पर रखकर भी
स्मृतियों में बचपन की बारिश का दखल अब भी बचा बसा है इतना सघन बरजोर कि भीग जाता है जब तब उसकी नर्म गुदगुदी से सारा तन मन
उन्हें कोई नहीं जानता पर कुछ समय पहले तक एक जीते जागते आदमी का नाम था- ‘हीरा भाई’
चलना उनकी भाषा है बैठना उनकी चुप्पी तुम्हें पता भी नहीं चलता जब तुम घर से बाहर रखते हो पाँव
एक समय की बात है दुख और व्याकरण की लड़ाई में दुख ने व्याकरण से कहा, ‘मेरा कोई व्याकरण नहीं होता।’
धरती, तुम माँगे, बिन माँगे मुझे वह सब कुछ देती हो जिसके बिना मैं चल नहीं सकता