ख़ारिज

बह रहे हैं शव काल के प्रवाह में इतने लोग मर रहे हैं कि नमन श्रद्धांजलि दुआ सबके सच्चे मायने खो गए लगता है अपने आँसू और दूसरों के आँसुओं को ओढ़कर बैठी-बैठी मैं नमक का ढूह बन गई हूँ

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भोर गीत

सूरज ने किरण-माल डाली कानों तक फैल गयी लाली क्षितिजों का उड़ गया अँधेरा फैल गया सिंदूरी घेरा गीतों ने पालकी उठाली जाग गईं दूर तक दिशाएँ बाहों-सी खुल गईं हवाएँ

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जंगल में रात

चाँदी की चोंच थके पंखों के बीच दिए पड़कुलिया झील सो गई जंगल में रात हो गई शंखमुखी देह मोड़कर ठिगनी-सी छाँह के तले आवाजें बाँधते हुए चोर पाँव धुँधलके चले

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सावनी उजास

हाथों में फूल ले कपास के स्वर झूले सावनी उजास के पागल-सी चल पड़ी हवाएँ मंद कभी तेज झूल रही दूर तक दिशाएँ यादों की चाँदनी सहेज

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सांध्य गीत

टूट गई धूप की नसैनी तुलसी के तले दिया धर कर एक थकन सो–गई पसर कर दीपक की ज्योति लगी छैनी आँगन में धूप-गंध बोकर बिखरी चौपाइयाँ सँजोकर

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रुआँसे चेहरे वाले लोग

वे चाहते हैं हमारी चुप्पी, हमारे कत्ल पर... उन्हें पसंद नहीं मरते हुए लोगों के शोर वे मुस्कान देखना चाहते हैं हमारे चेहरे पर, जब चले छुरी गले पर और हमारी साँस-नली कट जाए, एक फट की

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