अम्बर राम
अम्बर राम के पहले भी आये कितने राम परंतु मालिक के दाँत किटकिटाते उखाड़ देते अपना तम्बूमालिक के गुस्साते अक्सर पिचक जाती कोई थाली या फूट जाता लालटेन
अम्बर राम के पहले भी आये कितने राम परंतु मालिक के दाँत किटकिटाते उखाड़ देते अपना तम्बूमालिक के गुस्साते अक्सर पिचक जाती कोई थाली या फूट जाता लालटेन
ऐसा कि बेखुद अपनी सरक गई, धड़कने रुक गई हैं।किसी आहट पर चौंकती नहीं मैं नहीं होती कविता अधीर
बरगद की तलाश में टहलते अहसास को मैंने चेतावनी दी आगाह किया कुल्हाड़ियों की तेज धार से फिर भी जज्बात मुखर हो गए।लाख सँभाला समझाया दिखलाया राह के रोड़े रूसवाइयों के थपेड़े फिर भी उग आए
इस नदी से उस नदी तक आओ, एक पुल बनाएँबीच में न जाने कितने बहाव कितने ज्वार भाटे थाम कर लहरों को बस मुट्ठियों में