गिलहरी के बहाने
गिलहरी दौड़ती है जाना चाहती है रस्ते के उस पार पता नहीं जिंदगी की तरफ या मौत की तरफपर वह दौड़ती है एकदम आ जाती है अचानक सामने मौका भी नहीं देगी बचने बचाने का दब जाती है पहिए के नीचे
हज़ पर माँ
बहुत तमन्ना है माँ की वह जाए हज़ पर पिछले पाँच-छह साल से मन मसोसकर रह जाती याद करती चालीसों दिन
काव्य शिशु
एक बच्चा घुटनों के बल चलता खड़ा होने की कोशिश में बार-बार गिरता बार-बार उठता लोग तालियाँ बजाते हैं उसे उँगली पकड़ चलना सिखाते हैं कुछ लोग देने को अच्छे संस्कार उसे ‘बालोहं जगदानंद...’ रटाते हैं।
दृष्टि
अभी अभी तो डाली थी भावनाओं के आँगन में भरोसे की नींव! देखने लगी थी आजादी के सपने सघन भीड़ में तुम लगे थे अपने तुमने भी तो कोताही नहीं की
- Go to the previous page
- 1
- …
- 80
- 81
- 82
- 83
- 84
- 85
- 86
- …
- 110
- Go to the next page