जागरण

जग पड़ी हूँ चेतना में– स्वप्न के मधुमय निलय से उतर कर चुपचाप आई मैं हृदय में प्यास लेकर जग पड़ीं तब हैं अचानक स्वर लहरियाँ वेदना में। गीत के मधु संज पर इक, सो रहे थे प्राण मेरे, वे, सखी; अब नींद तज कर जग पड़े हैं आज धीरे सत्य की इक प्रेरणा में। वे मधुर से पल सुकोमल खो चुके हैं मधुरता सब प्राण ने जिनको दुलारा वे मदिर घड़ियाँ ही मेरी हैं पड़ी अवहेलना में!

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