स्नेहांचल विस्तीर्ण करो!
मस्तक पर निदाघ का आतप पग के नीचे ज्वलित मरुस्थल, पथिक मध्य में तप्त-दग्ध
मस्तक पर निदाघ का आतप पग के नीचे ज्वलित मरुस्थल, पथिक मध्य में तप्त-दग्ध
कल शाम को– अशोक राजपथ पर। मिले कविवर मित्र मेरे हाथ में लिए रजिस्टर।
हम पहुँचे झरने के समीप, था एक मौन सुनसान वहाँ! बस गूँज रहा केवल निर्झर का मोहन मादक गान वहाँ!
उस आत्मसमर्पण के क्षण में, उन प्रथम मिलन की रातों में मैंने थे वादे किए बहुत तुझसे बातों ही बातों में
रक्त भरे आँसू छलका कर प्रणयिनि! क्यों दे रही विदाई कड़वे सागर की मीठी मसोस में कितनी पीर समाई
हमने अपने मृदु सपनों को, अंबर में उगते देखा है भर-रात जगत के सिर्हाने, तारों को जगते देखा है