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कविता

Home » कविता » Page 86
 तारों को जागते देखा है

तारों को जागते देखा है

  • Post author:sanjay.panday
  • Post published:November 1, 1951
  • Post category:काव्य धारा
  • Post comments:0 Comments

हमने अपने मृदु सपनों को, अंबर में उगते देखा है भर-रात जगत के सिर्हाने, तारों को जगते देखा है

और जानेतारों को जागते देखा है
 रोज़ शाम को

रोज़ शाम को

  • Post author:sanjay.panday
  • Post published:November 1, 1951
  • Post category:काव्य धारा
  • Post comments:0 Comments

पर कौड़ी का निपट तीन हूँ। क्या मैं इतना मूल्य हीन हूँ

और जानेरोज़ शाम को
 संकेत

संकेत

  • Post author:sanjay.panday
  • Post published:November 1, 1951
  • Post category:काव्य धारा
  • Post comments:0 Comments

मुझे पद्म-उर-दृष्टि से तुम निहारो! मुझे प्यार की बाँसुरी से पुकारो!

और जानेसंकेत
 अमर संदेश

अमर संदेश

  • Post author:sanjay.panday
  • Post published:November 1, 1951
  • Post category:विश्व-भारती
  • Post comments:0 Comments

बीत चुके इतने दिन जैसे पर कल की ही बात, नहीं मिटा पाया उस छवि को क्रूर समय का हाथ।

और जानेअमर संदेश
 प्रत्यागत

प्रत्यागत

  • Post author:sanjay.panday
  • Post published:November 1, 1951
  • Post category:काव्य धारा
  • Post comments:0 Comments

नक्षत्र-दीप तुम गौरवमय बन जगो, जलो आकाश-रंध्र में जंलमुक् प्रात: राग बनो

और जानेप्रत्यागत
 सब कहते हैं-गीत सुनाओ

सब कहते हैं-गीत सुनाओ

  • Post author:sanjay.panday
  • Post published:November 1, 1951
  • Post category:काव्य धारा
  • Post comments:0 Comments

सब कहते हैं–गीत सुनाओ! मन को थोड़ा बहलाओ! यह न पूछता कोई तुमको क्या पीड़ा है बतलाओ?

और जानेसब कहते हैं-गीत सुनाओ
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