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कविता

Home » कविता » Page 89
 अफ्रीका

अफ्रीका

  • Post author:sanjay.panday
  • Post published:September 1, 1951
  • Post category:भारत-भारती
  • Post comments:0 Comments

उस पागलपन-भरे आदिम युग में जब विधाता खुद अपने से असंतुष्ट होकर

और जानेअफ्रीका
 भोर के बादल

भोर के बादल

  • Post author:sanjay.panday
  • Post published:August 1, 1951
  • Post category:काव्य धारा
  • Post comments:0 Comments

घिर आईं अँखियन में बदरिया भोर की

और जानेभोर के बादल
 जय वसुंधरे!

जय वसुंधरे!

  • Post author:sanjay.panday
  • Post published:August 1, 1951
  • Post category:काव्य धारा
  • Post comments:0 Comments

यह धरती अधिवास युगों से यही हमारी परिजन फूले-फले कि जैसे मधुवन क्यारी

और जानेजय वसुंधरे!
 राही और मंजिल

राही और मंजिल

  • Post author:sanjay.panday
  • Post published:August 1, 1951
  • Post category:काव्य धारा
  • Post comments:0 Comments

उषा में ही क्यों तुम निरुपाय

और जानेराही और मंजिल
 चाँदनी

चाँदनी

  • Post author:sanjay.panday
  • Post published:August 1, 1951
  • Post category:काव्य धारा
  • Post comments:0 Comments

भरी आँख है भरी चाँदनी। नई-नई आँखों का पानी

और जानेचाँदनी
 प्रबोध

प्रबोध

  • Post author:sanjay.panday
  • Post published:August 1, 1951
  • Post category:काव्य धारा
  • Post comments:0 Comments

जागो निद्रा-तंद्रा के कर बिके हुए बेमोल! उड़ी सुरभि सब ओर भोर के सरसिज-संपुट खोल!!

और जानेप्रबोध
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