लोहे के पेड़ हरे होंगे!
लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल
मुझे लौटकर जाने दो
मुझको वापिस बुला रहे हैं, मुझे लौट कर जाने दो! एकबार फिर बीते सपनों से संसार सजाने दो!
पिंजरे का पंछी
हमारे ‘द्विज’ बिहार में कविता की नई धारा के अग्रदूतों में रहे हैं। किंतु, उनकी रचनाओं से इधर हिंदी-संसार सर्वथा वंचित रहा है। क्यों?
शबनम की जंजीर
हाँ, प्रतिमाएँ तो बन गई हैं–किंतु उनमें दम कहाँ, जान कहाँ? उनमें प्राण-प्रतिष्ठा होनी चाहिए–किंतु करे कौन? कलाकार हुंकार कर रहा है–‘विज्ञान काम कर चुका, हाथ उसका रोको!’ हाँ, हाँ, प्रयोग के लिए ही सही, ‘कला-कल्याणी’ को भी एक अवसर दिया जाना चाहिए।
कैकेयी
माइकल मधुसूदन ने ‘मेघनादवध’ काव्य की रचना करके कहा था–‘मेघनादे जयडालि : लक्ष्मणेर मुखे कालि!’ ‘प्रभातजी ने अपने ‘कैकेयी’ काव्य में कैकेयी का चित्रण उसी प्रकार एक विलक्षण ढंग से किया है। यहाँ कैकेयी का नैश चिंतन देखिए–
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