सामने

आज भी सुबह आठ बजे से राहगीरों को ताकते हुए ग्यारह बजे चले थे। मजदूरी को तलाशती उसकी आँखों में मजबूरी पानी बनकर उभर आई थी।

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खुशियों का व्यापार

ज्यों-ज्यों वह लड़की बड़ी होने लगी, त्यों-त्यों परिवार में एक बेफिक्री का आलम नजर आ रहा था। फिर भी, ऐसा क्या था जिस पर लड़की के बड़ी होने पर गाँववाले खुशियों से भरे-भरे थे।

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घड़ी का भुगतान

एक बड़ी दुविधा में फँसा था वह। फिलहाल, नोटिस की अवहेलना करना उसका इरादा नहीं है...घड़ी से बढ़कर उनकी इज्जत दाँव पर लगी थी, उसने सोचा, और त्वरित ही घड़ी का भुगतान करने में ही उसकी भलाई है।

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राह से मंजिल

एक सवाल अकेले में अंदर ही अंदर मथे जा रहा था और फिर अल्पकाल में भीतर ही भीतर कहीं से एक आवाज जेहन में टकराई, ‘वस्तुतः तुम्हारी मत ही मारी गई है... क्या गरूर करना नौकरी-पद-स्टेट्स का...आखिर, इस नश्वर-नाशवान काया का गुमान काहे का...’

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चलते-फिरते दिन

मगर क्षणों में ही बाबूजी की खाट पर ही आँखें नम हो आईं, ‘...क्या बदहाल बनी है उनकी जिंदगी!’ वह बुदबुदाए और अंदर से छटपटाते-कराहते से कहीं गुम हो गए।

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