समकालीन कविता : परिवेश और मूल्य

हमें यह कहने में सकुचाहट नहीं कि युवा कवि राजकिशोर राजन का काव्य-परिवेश, प्रकृति और मानवीय अंतर्संबंधों के यथार्थ के मध्य दुर्निवार दुःख-तंत्र और उसके अंतःसंघर्ष की वह काव्य-कथा है जो सहज भाषा में लोकजीवन की संश्लिष्ट और अविकल अर्थ-छवियाँ रचती हैं।

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महाकवि ‘मीर’ और उनकी कविता

‘मुहब्बत ने काढ़ा है जुल्मत से नूर न होती मुहब्बत न होता जहुर मुहब्बत मुहब्बत मुहब्बत सबब मुहब्बत से आते हैं कारे–अजब।’

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मैं गाँव पर ही क्यों लिखती हूँ

‘मैं गाँव पर क्यों लिखती हूँ’ का जवाब इस सवाल में छिपा है कि मैं क्यों लिखती हूँ! इतने सारे काम थे करने के लिए और एक स्त्री को तो काम बताने वाले लोग पहले से ही मौजूद रहते हैं, घर के बाहर भी...घर के भीतर भी।

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श्यामसुंदर घोष को याद करते हुए

‘जाने जीवन की कौन सुधि ले लहराती आती मधु बयार रंजित कर दे यह शिथिल चरण ले नव अशोक का अरुण राग मेरे मंडन को आज मधुर रंजनीगंधा का पराग।’

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समीक्षकों के समीक्षक कुमार विमल

मैं कुमार विमल को ‘समीक्षकों का समीक्षक’ मानता हूँ। पुस्तकें कैसे समीक्षित की जाती हैं, समीक्षकों को इसे कुमार विमल से सीखना चाहिए। इधर ‘चिंतन-सृजन’ के संपादक डॉ. बी.बी. कुमार ने उनसे मेरी पुस्तक ‘उत्तर-आधुनिकता : बहुआयामी संदर्भ’ की समीक्षा लिखने का आग्रह किया था। उन्होंने यह दायित्व स्वीकार कर लिया था, पर दुर्योगवश वह समीक्षा पूरी नहीं हो पाई।

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समकालीन कविता में प्रतीक

मुक्तिबोध ने कविता को अपने सार्थक और मौलिक प्रतीकों के द्वारा कलात्मक सौंदर्य, गहराई और सांकेतिकता प्रदान की है। मुक्तिबोध की कविताओं में वर्तमान के वैज्ञानिक एवं मौलिक तथा भूतकाल के पौराणिक प्रतीकों का भी प्रयोग पर्याप्त मात्रा में है। वस्तुतः उनके प्रतीक सुनियोजित सुव्यवस्थित सटीक होते हैं।

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