बँधे बँधाए साँचे को तोड़ती कहानियाँ

तेजेंद्र की कहानियों में सभ्यताओं का द्वंद्व है, समाज का वह विद्रूप चेहरा है जिसे पूँजीवाद रह-रहकर बेनकाब करता चलता है। तेजेंद्र जी की भाषा में एक तरह का ‘इन्हेरेंट विट’ है जो कहानियों में एक खास किस्म की रवानी पैदा करता है और हिंदी उर्दू की साझी परंपरा की किस्सागोई की विरासत की याद दिलाता है। तेजेंद्र शर्मा की रेंज बहुत बड़ी है। उनके समकालीन कई कथाकार एक ही कहानी को बार बार लिखकर राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय होने का दंभ भरते रहे जबकि यह लेखक समाज की अलग अलग विडंबनाओं को अपनी कथाओं के माध्यम से समझते रहे।

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मृत्युबोध के बहुरंग की कहानियाँ

प्रस्तुत कहानी में मृत्यु दो रूपों में पुरजोर तरह से उपस्थित है मुझे लगता है तेजेंद्र शर्मा की अन्य सभी कहानियों की तुलना में मृत्यु पर जितना विस्तृत चिंतन लेखक ने ‘हथेलियों में कंपन’ में किया है अन्यत्र दुर्लभ है। मृत्यु का दूसरा सिरा मौसा नरेन के जवान बेटे अमर की मृत्यु से जुड़ा है। लेखक ने पूरी कहानी में व्यंग्यात्मक शैली में मृत्यु को अनेक संदर्भों में व्याख्यायित किया है। मृत्यु यदि एक बाजार है, उसकी मंडी भी लगती है, वह एक व्यवसाय है, तो मृत्यु एक हस्ताक्षर भी है। कभी-कभी अपने प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करके अपने क्रम को उलटने वाला हस्ताक्षर भी मृत्यु ही है। इस तरह मृत्यु अंत नहीं आरंभ है जीवन का।

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तेजेंद्र शर्मा की कहानियाँ

तेजेंद्र शर्मा अपनी कहानियों में अपने समय के परिवेश को पूरी गहनता और सघनता से व्यक्त करते है। उनकी कहानियों में फैले परिवेश का विस्तार देशी और विदेशी पृष्ठभूमि पर आधारित है। अपनी कहानियों में तेजेंद्र शर्मा उस परिवेश को उद्घाटित करते हैं जो हमारी चेतना को बहुत गहरे जाकर उद्वेलित और प्रभावित करता है।

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 भारतीय संस्कृति के पुरोधा रामविलास शर्मा
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भारतीय संस्कृति के पुरोधा रामविलास शर्मा

रामविलास शर्मा बहुमुखी प्रतिभा के लेखक थे, जिन्होंने भाषा विज्ञान, इतिहास, संस्कृति, साहित्यालोचन जैसे क्षेत्रों में विपुल लेखन कार्य किया। यह एक सौ से अधिक किताबों के लेखक थे (शायद इसीलिए उनकी रचनावली अभी तक प्रकाशित नहीं हो सकी है) और उनकी प्रत्येक किताब के लिए उन्हें पी-एच.डी. या डी.लिट्. की उपाधि दी जा सकती है। वह 1934 से 2000 तक (66 वर्ष) निरंतर गंभीर लेखन करते रहे तथा उन्होंने अनेक विषयों पर मौलिक चिंतन-लेखन किया जिन पर वाद-विवाद-संवाद लगातार होते रहे हैं।

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हवा में लहलहा रही ‘कलगी बाजरे की’

यह कविता अज्ञेय की काव्य यात्रा के पूर्वार्द्ध की कविता है। उस दौर में उन्होंने पूर्ववर्ती काव्य आंदोलनों की रूढ़ और अप्रासंगिक हो चुकी प्रवृत्तियों से विद्रोह किया था और साहित्य की दुनिया में नये,

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बेघर होने की त्रासदी : ‘डार से बिछुड़ी’

कृष्णा सोबती ने पाशो की रचना के जरिये स्त्री जीवन के समक्ष जीवन से मौजूद खतरों और उसकी विडंबनाओं को रेखांकित किया है।

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