“नवल नागरी नेह रत”

“मैं समझ गया कि हों न हों ये सत्यनाराण जी हैं; पर फिर भी परिचय-प्रदान के लिए पं. मुकुंदराम को इशारा कर ही रहा था कि आपने तुरंत अपना मौखिक ‘विज़िटिंग कार्ड’ हृदयहारी टोन में स्वयं पढ़ सुनाया–

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भारतीय दर्शन में ‘कर्म’ की महत्ता

हमारे भारतीय जीवन ने आरंभ से ही दर्शन को व्यवहारिक जीवन का आधार माना है। हमारी संस्कृति के उदय के आरंभ-काल से ही जिस देश ने दर्शन और धर्म का साम्य स्थापित रखा, उसके जीवन में कर्म-सिद्धांत का प्राबल्य स्वाभाविक था।

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पावस और लोकगीत

भारतीय ग्राम्य जीवन सदा से संगीतमय रहा है। कर्ममय ग्राम्यजीवन में भी आघात-व्याघात, प्रेम-विरह, सुख-दुख के अनुभवों के स्रोत छंदबद्ध हो कर निकलते हैं।

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सूफियों का प्रेम-तत्त्व

सूफी मार्ग की अंतिम मंजिल प्रेम और मारिफ (ज्ञान) हैं, जिनके द्वारा साधक परमात्मा के दर्शन करता है और अंत में उसके साथ एकमेक हो जाता है।

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राष्ट्रभाषा का स्वरूप

हिंदी राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन हो गई। जो लोग किसी और भाषा को राष्ट्रभाषा के पद पर बैठाना चाहते थे उनके सपने टूट गए।

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अहिंसात्मक प्रजातंत्र की बुनियाद

अपने देश में सब जगह आज हमें उत्पादन और दरिद्रता एक दूसरे से जुड़े हुए दिखाई देते हैं।

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