ऋता शुक्ल की कहानियों में नारीवाद

जहाँ एक ओर पितृसत्ता का दंश और शोषण झेलती स्त्रियाँ हैं, तो कहीं आदर्श दांपत्य को सँभालती हुई देवियाँ, तो कहीं विकलांगता के बावजूद प्रतिरोध और संघर्ष करती नई स्त्रियाँ हैं तो कहीं स्वयं नारी होकर नारी का ही विरोध व शोषण करती हुई अबोध स्त्रियाँ हैं।

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अप्रतिम सौंदर्य का ‘जंगली फूल’

उपन्यास की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है–‘सुना है कभी तानी नाम का कोई फूल कहीं पर खिला था। लोगों की जुबान पर वह सिर्फ एक फूल है–रंगोंवाला फूल–रंगीन फूल–मानो उसमें कोई खुशबू ही नहीं थी

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मरै सो जीवै : दादू दयाल

ईश्वर सब जगह है, तुम्हारे भीतर भी बाहर भी। बस यही जान लेना है। ज्यूँ का त्यूँ देखने की आदत डाल लेनी है, ‘दादू द्वैपख रहता सहज सो, सुख-दु:ख एक समान। मरे न जीवे सहज सो पूरा पद निर्वाण।’

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मलखान सिंह सिसौदिया–कविता में मृत्युंजय संकल्प

श्री सिसौदिया की संपूर्ण काव्य-यात्रा संशय रहित मृत्युंजय संकल्प से आविष्ट है और उसकी जड़ें जन सामान्य के जन-संघर्ष और देश की सांस्कृतिक-सामाजिक मनोभूमि में गहरे धँसी हुई हैं। सन् 2010 ई. में दिवंगत हुए मलखान सिंह जी की कुछ कविताएँ अभी संग्रहबद्ध नहीं हो पाई हैं। अच्छा हो कि उनके परिवारजन और आत्मीय लोग उनकी रचनावली के प्रकाशन का संकल्प लें और उनकी अप्रकाशित-असंग्रहबद्ध रचनाओं को भी उनमें सहेजा जाए।

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ईमानदारी का लेखन

इस पुरस्कार समारोह में उपस्थित न हो पाने का मुझे उतना ही दुःख हो रहा है जितना कि भाई के विवाह में मायके न पहुँच पाने की पीड़ा किसी विवाहित बहन को ताउम्र सालती होगी। पर, मेरे लेखन में आप सबकी कृपादृष्टि, आशीर्वाद और मार्गदर्शन निरंतर बना रहे–यही कामना करती हूँ।

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मेरी जिंदगी कविता है

मैं लोगों को जोड़ना पसंद करता हूँ। मैं सच्चे मन से विश्वास करता हूँ कि कविता लोगों को जोड़ती है, मानवी संबंधों को दृढ़ बनाती है। सद्भावना परक सामाजिक परिवेश का निर्माण करना मेरा प्रयास रहा है। मैं लोगों को आपसी सम्मान और विश्वास के दायरे में बँधकर शांति से जीते हुए देखना चाहता हूँ।

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