‘दारिद दुष्टन को गहि काढ़ौ’

हिंदी काव्य के साथ जो दुर्व्यवहार पिछले वर्षों में हुआ उसका दुष्परिणाम यह निकला कि लोग केशव को भूल से गए और शिक्षाक्रम में हिंदी को स्थान मिला भी तो लोग उनकी बहुछंदी रचना रामचंद्रिका का ही अध्ययन-अध्यापन करते रहे।

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‘पुराणमित्येव न साधु सर्वम्’

प्राचीनता की पूजा और नवीनता को शक की नजर से देखना–यह भारतीय संस्कृति की अपनी विशेषता रही है।

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नई समीक्षा पर मार्क्स और फ्रायड का प्रभाव

मार्क्सवादी सामाजिक-आार्थिक सिद्धांत का जब काव्य अथवा साहित्य में प्रयोग किया जाता है, तब उसकी स्थिति बहुत कुछ असंगत और असाध्य-सी हो जाती है।

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आलोचना के नाम पर

वर्तमान हिंदी आलोचना को कई वादों में विभक्त किया जा सकता है–रसवाद, प्रगतिवाद, यौनवाद, प्रशंसावाद, काव्यवाद, उद्धरणवाद और अंतत: आतंकवाद। इन वादों की एकांगिता से हिंदी-साहित्य की किस प्रकार अपार क्षति हो रही है इसे सुधी लेखक की लेखनी से ही देखिए–

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