हमें यह कहना है!

क्या कभी हमने यह सोचा है कि हिंदी में उनके साहित्यकारों की जीवनियाँ कितनी कम हैं? क्या तमाशा है, जिन्होंने संसार को अपनी कृतियों से अमरता दी, उनकी कृतियों की कहानी कह कर कोई अपने को अमर करने को तैयार नहीं!

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हमें यह कहना है!

श्रावण के साथ दो पावन स्मृतियाँ बँधी हैं–एक तुलसीदास की, दूसरी प्रेमचंद की। दोनों की कलात्मक तुलना की बात नहीं; किंतु दोनों एक बात में बहुत मिलते हैं–जन-जीवन के साथ अपनी कला का निकटतम संपर्क स्थापित करने में।

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हमें यह कहना है!

भारत-सरकार ने दिल्ली में देश के साहित्यिकों की जो सभा बुलाई थी, वह एक अभिनंदनीय घटना थी। स्वतंत्र भारत की सरकार देश के चहुँमुखी विकास में साहित्य को भी स्थान देती है, इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। किंतु, इस सभा पर शुरू से ही नौकरशाही की छाप थी। साहित्यिकों का चुनाव सरकारी ढंग पर हुआ।

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हमें यह कहना है!

विजयोत्सव उत्सव या संगीतोत्सव! पटना के प्राचीन कला-उत्सव! राष्ट्रीय रंगमंच काशी में ही! सिनेमा : कहाँ, किधर? लेखक और निंदक!

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हमें यह कहना है!

स्वर्गीय बालमुकुंद गुप्त हिंदी के उन नायकों में से थे जिन्होंने हिंदी-गद्य के पौधे को उस समय सींचा, जब वह बिल्कुल पौधा था। पंजाब उनकी जन्मभूमि थी; उर्दू में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई थी। प्रारंभ में वह उर्दू में ही लिखते थे, उर्दू पत्रों का संपादन भी किया था।

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