सेवाग्राम
सुबह का वक्त था। पूर्व में से काली कंबली वाले साधुओं की एक कतार, काले बादलों के रूप में, तारों की ज्योति में अपना रास्ता टटोलती हुई, पश्चिम की तरफ जाती दिखाई दी।
सुबह का वक्त था। पूर्व में से काली कंबली वाले साधुओं की एक कतार, काले बादलों के रूप में, तारों की ज्योति में अपना रास्ता टटोलती हुई, पश्चिम की तरफ जाती दिखाई दी।
उस वर्ष (1923) रायटर ने यह समाचार प्रचारित कर दिया कि इस बार का साहित्य संबंधी नोबेल पुरस्कार किसी भारतीय लेखक को मिलने वाला है।
कहा यह जाता है कि उनके जन्म के पहले कई भाई पैदा होकर चल बसे। शायद उनकी माँ को पुत्रयोग नहीं था। इसीलिए इनके जन्म के समय यह व्यवस्था की गई कि माँ की नज़र पहले अपने बच्चे पर न पड़ कर किसी अन्य नवजात पशु पर पड़े।
डॉ. सिन्हा एक संस्था थे और उनके चरणों में बैठकर बिहार ने सर उठाना सीखा है। उन्होंने दो-तीन पीढ़ियों का जैसा पथ-प्रदर्शन किया वह हर कोई जानता ही है, उनकी ठीक बाद वाली पीढ़ी के राजा साहब हैं।
मेरे दिमाग में यह बात ही नहीं आई कि इतने बड़े और प्रसिद्ध लेखक, जिनसे मेरा केवल एक दिन का परिचय है, अपने घर के भीतर बीस तरह के कामों में व्यस्त हो सकते हैं और इस विशेष क्षण में किसी अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचना में तल्लीन हो सकते हैं
यों एकबार और भी उनके घर गया था। पर वह खास मौका था इसलिए उनके बारे में कुछ विशेष नहीं जान सका। वह बीमार भी थे। हाँ इतना समझ में आया कि वे बड़े जिद्दी हैं, गाँधी जी की तरह। इस जिद्दी शब्द पर घबराने की बात नहीं है। मामूली आदमी में यही गुण जिद्दी कहलाता है तो बड़े आदमियों में दृढ़ता। बात एक ही है। हाँ, तो वह बीमार थे और काफी सख्त बीमारी के बावजूद अपनी लड़की का ‘दान’ उन्होंने 1030 बुखार में किया। उन्हें समझाया जाता तो सिर्फ अपना निश्चय भर प्रकट करते, न कोई दलील देते, न सुनते। राम जाने क्यों!