शरतचंद्र संबंधी मेरे संस्मरण
शरतचंद्र का पहला परिचय मुझे उनकी जिस रचना द्वारा मिला था वह था उनका सबसे नीरस उपन्यास–‘पल्ली-समाज’।
शरतचंद्र का पहला परिचय मुझे उनकी जिस रचना द्वारा मिला था वह था उनका सबसे नीरस उपन्यास–‘पल्ली-समाज’।
अपने रूप और वेष दोनों में वे इतने अधिक राष्ट्रीय हैं की भीड़ में मिल जाने पर शीघ्र ही खोज नहीं निकाले जा सकते।
“जिस समय रवींद्र का घोड़ा बंगाल से छूटा तो उसकी रास थामने की हिम्मत किसी में नहीं थी। लेकिन मैंने ही उस घोड़े को थाम लिया।...हमारा यह जो रंग है वह असल रंग नहीं। यह तो धूप में काला हो गया है।...इसका, बहुत लंबा हिसाब-किताब है।”
वृंदावन लाल वर्मा का मेरा साथ तीस-पैंतीस बरसों का है। वे मुझे बड़ा भाई मानते हैं, ‘भाई साहब’ कहते हैं, और मैं उन्हें ‘वृंदावन’ कहता हूँ।
अनुदिन हमारे घंटों पर घंटे साथ बीता करते फिर भी मन न अघाता। प्रसाद जी कितने ही विषयों के आकर, जो प्रसंग चल पड़ता उसी में स्वाद मिलता।
हिंदी में जब ‘प्रगति’ के नाम पर बहुत कुछ हो रहा है और लोग इसके पीछे न जाने किस-किस की गति बना रहे हैं, तब यहाँ इस क्षेत्र में भी ‘भारतेंदु’ का कुछ करतब देख लेना चाहिए।