कलम, आज उनकी जय बोल

रामधारी सिंह दिनकर प्रखर और संवेदनशील कवि थे। उनके काव्य व्यक्तित्व का निर्माण स्वाधीनता संग्राम के घात-प्रतिघात के बीच हुआ था। उस समय देश में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष निरंतर बढ़ रहा था। समय ऐसा था जहाँ वायवीय निरुद्देश्य गीतों की गुंजाइश न थी। इसीलिए वे समय की विडंबनाओं से उलझते रहे। उनका समूचा लेखन पराधीनता के विरोध, शोषण पर प्रहार तथा समता के समर्थन की पहचान है। अपने युग का तीखा बोध था उन्हें। वे कहते थे मैं रंदा लेकर काठ को चिकना करने नहीं आया हूँ। मेरे हाथ में कुल्हाड़ी है, जिससे मैं जड़ता की लकड़ियों को फाड़ रहा हूँ।

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 पूर्वोत्तर में कौवे
Wheatfield-with-Crows-by-Vincent-van-Gogh--WikiArt

पूर्वोत्तर में कौवे

मैं दुनिया-जहान के उन कपूतों में सबसे शीर्ष पर हूँ, जिन्होंने माँ के लिए कुछ नहीं किया। मैंने जब-जब कुछ करना चाहा, माँ ने हंसकर मेरा हाथ झटक दिया

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फिर आना अम्मा

अम्मा मुझे लग रहा है तुम अपनी साँसों को ही नहीं समेट रही हो, बहुत कुछ समेट रही हो। एक शख्सियत इस धरा से विदा लेती है तो उसके साथ एक युग, साम्राज्य, सत्ता, हुनर, तौर-तरीके, अनुभव, सूचनाएँ...बहुत कुछ विलुप्त हो जाता है।

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क्या उन्हें बच्चे की याद आती होगी

अमर सिंह जवंदा जब 1977 में पटियाला (पंजाब) के पास के अपने गाँव चंदू माजरा से बर्लिन आए थे तब किसी भी देश में आने के लिए वीजा की जरूरत नहीं होती थी। ऐसा वे कहते हैं। उस समय भारत में जनता पार्टी की सरकार बन चुकी थी और जर्मनी के भी राजनैनिक हालात बदल रहे थे। उनके तीन भाई, पत्नी और इकलौता बेटा हरदीप गाँव में ही रह गए। उन्होंने 1986 में बर्लिन के पश्चिमी इलाके में पहला भारतीय रेस्त्राँ खोला। उस रेस्त्राँ का नाम उन्होंने ‘टैगोर रेस्त्राँ’ रखा। तब से लेकर अब तक बर्लिन में सैकड़ों भारतीय रेस्त्राँ खुल गए हैं।

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जब जब देखा लोहा देखा

बाबूजी (स्वर्गीय प्रो. गोपाल राय) के पंचतत्व में विलीन होने के उपरांत उनकी अस्थियाँ बिनते समय एक कठोर तप्त वस्तु के हाथ से स्पर्श होते ही माथा ठनका।

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वो घड़ी न आए काश

लेखकीय स्वाधीनता के लिए नौकरी या लाभ का कोई पद ग्रहण न करने का संकल्प राजेन्द्र यादव ने लेखन के प्रारंभ में ही ले लिया था। बाद में कोई पुरस्कार न लेने का संकल्प भी उसमें जुड़ गया, जिसे ईमानदारी से निभाने की कोशिश उन्होंने ताउम्र की।

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