मैं बृहन्नला
‘जनम लिए रघुरइया, अवध म बाजे बधइया महलन मंगल चौक पूर गए जगर-मगर सब ठंइया अवध म... राजा दशरथ कय बात न पूछो मोहरे रहे लुटइया अवध म...।’
‘जनम लिए रघुरइया, अवध म बाजे बधइया महलन मंगल चौक पूर गए जगर-मगर सब ठंइया अवध म... राजा दशरथ कय बात न पूछो मोहरे रहे लुटइया अवध म...।’
सागर फोन पर बात कर लेता, लेकिन प्रत्यक्ष आने की बात पहले की तरह नहीं थी। जीवन में नये आयाम जुड़ गए थे।
जैजों शहर के मरासी मुहल्ले में होने वाली सरगोशियाँ चमारों, कुम्हारों, लुहारों के मुहल्लों से होकर उड़ती-उड़ती हमारी छोटी दुकानों वाले बाजार में चक्रवात-सा धूमा करतीं। सब बहुत हैरान थे कि यह कैसे और क्यों हुआ कि कंजर मुहल्ले का खानदानी चौधरी अपनी जवान बेटियों को लेकर लाहौर चला गया।
कोई व्यक्ति मात्र अपनी महानता साबित करने को ऐसे नहीं रह सकता है। वीथिका माँ मुझे बताइये क्या था आपके मन में?
वीथिका अपनी मित्र भारती दत्त के साथ यहाँ आकर देर से खड़ी चढ़ती गंगा को देख रही थी। जून माह का यह आखिरी दिन है। ग्रीष्मावकाश है। परिसर खाली है।
पेट की भूख। लत्ता-कपड़ा की भूख। छत-छाया की भूख। इनके बाद बड़ाई की भूख हुआ करती है। लखीनाथ सपेरा ने हाथ से पीतल का कड़ा निकाला। कानों में पहने कुंडल निकाले। बूड़ा रेत और घास की जड़ से रगड़-रगड़, मल-मल खूब धोए। चमक सोना को मात देने लगी।