सैरंध्री अब नहीं हारेगी

शरीर और मन पर अंकित अनाम यातनाओं के घाव कहाँ सूख पा रहे थे? उस पर बस, समय की परत चढ़ गई थी। मैं नार्मल नहीं थी, लेकिन ऊपरी तौर पर दूसरों को जरूर लगती थी। बड़े भाई से ज्यादा अपराधिनी तो, जन्मदात्री माँ ही प्रतीत होती थी, जिसकी उपस्थिति में मेरा कौमार्य लूटा गया। इस अपराध के लिए मेरा पक्ष लेकर भाई का मुँह नोंच सकती थी! काश...मेरे अंदर सुलगते, कुलबुलाते, अनबुझे सवालों के बीच दुर्भाग्य ने एक और पटखनी दे दी। रिश्वतखोरी के मामले में पिता जी दफ्तर में रंगे हाथ पकड़े गए तथा तत्काल नौकरी से सस्पेंड कर दिए गए। अपने अपराध का प्रायश्चित करने के बजाय अक्सर शराब पीकर घर आते। नशे की उत्तेजना में माँ पर, वहशियों की तरह हाथ-पैर चलाते। आखिर पुरुष हैं ना! हर हालत में स्त्री को ही प्रताड़ित किया जाता है तथा अनाम यातनाओं के कुंड में, झोंक दिया जाता है।

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धूप, धूल और धक्के

चौरासी बरस का शिंगारा सिंह मैली-सी सफेद दाढ़ी, मैले-से सफेद कुर्ते-चादर और मसली-सी सफेद पगड़ी में बहुत पहले सफेदी किए हुए किसी पुराने ‘कोठे’ जैसा लगता है। गाँव से बाहर दो या शायद तीन जामुन और टाहली के पेड़ों के नीचे, एक पुराना नल के और शीरू की चाय-पकौड़ियों वाली ‘हट्टी’ से मिलकर बने इस तथाकथित ‘बस-अड्डे’ पर कभी बैठे...कभी खड़े...कभी टहलते हुए किसी ठीक-ठाक सी बस का इंतजार करते...उसे चार-पाँच घंटे से भी ज्यादा हो गए हैं।

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नाम बड़े और दर्शन छोटे

सभापुर नगर भी आखिर बाजारवाद की लपेट में आ ही गया। बाजारवाद से जिसका जो नफा-नुकसान हुआ वह तो हुआ ही, सबसे अधिक क्षति हुई मुख्य पथ पर ‘होटल सर्वश्रेष्ठ’ और उसके ठीक बगल से लगे जय भवानी पान भंडार की।

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जरीवाला जाकेट

जैसे ही जूठी प्लेटें उठाकर एक ओर रखे ड्रम में डालने के लिए जग्गू झुका कमर में दर्द की एक लहर ऊपर से नीचे तक दौड़ गई। एक आह निकली जो सिर्फ उसने सुनी। बाकी सब तो मस्ती में डूबे थे। दुःख उसका अपना था। जग्गू को न ड्रम से आ रही जूठन की गंध ने छुआ, न नीम के पेड़ से ड्रम में झरी नीम की पत्तियों ने। छुआ होता तो पता चलता कि कड़ुवाहट कहाँ ज्यादा घुली है–पत्तियों में या खुद उसके अंदर! पर अपनी पीर लिए वह देर तक वहाँ खड़ा नहीं रह सकता था। केटरर हरनाम सिंह देख लेता तो काम-चोरी के लिए डाटता या आइंदा काम पर न आने का फरमान जारी कर देता। लँगड़ाता हुआ, जग्गू फिर से स्वागत-समारोह में आए अतिथियों के बीच जाकर जूठी प्लेटें इकट्ठी करने लगा। उसे प्रभु पर, यदि वह कहीं है तो, क्रोध हो आया। क्यों उसने...लकवे के हल्के अटैक के कारण उसके बाएँ पैर को कमजोर कर दिया। इस विकलांगता की वजह से ही उसे वेटर का पद न देकर केवल प्लेटें उठाने का काम दिया गया।

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वह कौन थी

‘स्वाल है, हम क्या बचाणा चाहते हैं और क्या बच पाता है। एक-एक कर प्यारी लगने वाली चीजें हमें फेंकनी पड़ती हैं, ताकि गढ्डा हल्का हो, हम भेड़ियों से जाण बचाकर भाग सकें। अब अपणा ही देखो, बची भागवंती, पेट में की निशानी, माने मैं उसकी बेटी लाजो, और...दादा जी का हुक्का। गुजरे जमाने की यादें ताजिंदगी ढोया करे हैं हम जबकि खुद को ही ना ढोया जावे...और यादों को ढोने का जज्बा...? भौत-ई खतरनाक है ये जज्बा भौत-ई खतरनाक! बचा तो पाते नहीं, मुफत में कुछ और गँवा आते हैं हम। हाय रे भाई जित्तू और बूआ नीलू! चाहते तो वे पहले भी भाग सकते थे। तब इन्हें बचा लेते हम मगर वो...पुश्तैनी हुक्का! एक निशानी बचाने के लिए सारी निशानियों को मिट जाने दिया हमने।

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खुशियों की सौदागिरी

लेकिन अचानक की मेरी मसखरी मुझे भारी पड़ी। मेधा ज्यादा गुस्से या ज्यादा तिलमिलाहट से हुमस कर रो पड़ी। मैं अकबकाया सा उसे मनाने बढ़ा तो उसने झटक दिया। मैंने दुबारा सॉरी कहा और कबर्ड से अपना वॉलेट निकाल उसकी तरफ डालते हुए कहा–आज से इसे तुम्हीं रखो–तुम इसकी मालकिन–खुश? ‘वह रोते-रोते वॉलेट फेंक कर चीखी–‘मुझे खाली वॉलेट्स रखने का शौक नहीं’– –‘अब तुम्हारे लिए चोरी के नोटों से भरा बटुआ तो मैं लाने से रहा’– ‘तुम्हारा मतलब, निलय बख्शी और विशाल घाटे चोर हैं...एक तुम्हीं जमाने में।’

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