पुन: भारत में

स्वामी विवेकानंद और उनके साथी राजकीय बग्घी में बैठे। उनके साथ अंगरक्षकों के नेता के रूप में राजा के भाई थे। भारतीय और विदेशी बैंड साथ चल रहे थे। ‘देखों हमारा जगत्-विजेता नायक आ रहा है।’ गीत की धुन बजाई जा रही थी। राजा स्वयं पैदल चल रहे थे। सड़क के दोनों ओर मशालें जल रही थीं और लोगों के द्वारा हवाइयाँ चलाई जा रही थीं। चारों ओर हर्ष और उल्लास का वातावरण था। जब वे गंतव्य के निकट आ गए तो राजा की प्रार्थना पर स्वामी बग्घी से उत्तर कर राजकीय शिविका में बैठे और वे पूरे तामझाम के साथ शंकर विला में पहुँचे। थोड़ा विश्राम करने के बाद स्वामी सभागार में उपस्थित हुए, जहाँ लोग उनको सुनने के लिए उपस्थित हुए थे।

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शहतूत पक गए हैं

समुद्री तूफान था। रातभर तेज हवाएँ चलती रहीं। हवा की साँय-साँय के साथ पानी की बौछारें भी बंद खिड़की, दरवाजों से टकराती रहीं। मुँह अँधेर दूध वाले की घंटे से मेरी आँख खुली। दिदिया नहीं उठीं क्या? रोज तो वही दूध लेती हैं। दूध की थैली चौके में रखते हुए उनके कमरे की तरफ निगाह गई। बत्ती जल रही थी। उठ तो गई हैं वे...फिर दूध लेने क्यों नहीं आईं? उनके कमरे के दरवाजे को हल्के से ठेलकर मैंने अंदर झाँका। वे पलंग पर बेसुध गहरी नींद में थीं। खिड़की के पल्ले भी खुले थे

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टूटी कुर्सी

विर्जीनिया वुल्फ ने लिखा था, ‘महिला की पूरी जिंदगी पर एक तलवार लटकी रहती है, जिसके एक ओर होते हैं...रीति रिवाज, मान्यताएँ, परंपराएँ और नियम। जब तक वह उनके बीच जीती रहती है, वहाँ तक सब ठीक होता है, पर तलवार के दूसरी ओर होती है, वह जिंदगी, जिसमें वह सब कुछ मानने से इनकार करती है, किसी नियम को नहीं मानना चाहती, वहीं सब ‘कन्फ्यूजन’ है। उसकी जिंदगी में कोई भी पक्ष सामान्य नहीं होता। इस तलवार की धार पर चल कर पार कर लेना स्त्री के अस्तित्व के लिए जहाँ अच्छा होता है, वहीं कठिन भी होता है।’ पहले विवाह का न होना, फिर हो जाना अगर तलवार की एक धार थी तो इस दूधारी तलवार के दूसरी ओर थी–विवाहित जिंदगी को जीते रहना, हर हालात का सामना करते हुए। वही तो कठिनाई होती है।

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कंधों पर सवार प्रेत

बिना संयोग के कोई कहानी नहीं बनती, क्योंकि जिंदगी में इत्तिफाकन बहुत कुछ होता है। यहाँ भी ऐसा ही हुआ। जिस रात मिंदर गीतिका के घर से निकली तब उसका मिजाज उखड़ा हुआ था–इन बड़े लोगों का भी कोई भरोसा नहीं...एक पल में मोम, दूसरे में पत्थर! मैंने ऐसा क्या कहा, अफसोस ही जताया कि घर टूट गया...वह मुझे ही सुनाने लगी कि तेरा कंथ तो प्रेत बनकर तेरे कंधों पर सवार है, उतार फेंक! अरे! वाह! जनम-जनम का रिश्ता कोई काट के फेंकता है! अपने मजाजी रब को कोई प्रेत कहता है? मत मारी गई है भैंण जी की! सच्च कहते हैं–ज्यादा पढ़ाई-लिखाई मगज में चढ़ जाती है। उसने अपने सिर झटक कर खुद को समझाया–छोट नी मिंदर! जग स्यापा, ते रब राखा!

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स्वाभिमान की रोटी

नगर में एक समाज-सेवी सेठ हैं–ईश्वरचंद सेठ! इन्होंने एक बड़ा-सा प्रतिष्ठान चला रखा है। पहले छोटा-मोटा व्यापार था। उस समय महज एक आदमी वहाँ काम करता था। आज कई लोग जुड़ गए हैं। लेकिन सबसे पुराना विश्वासी मुरलीधर ही है। वह सेठ जी का सभी काम बड़ी तत्परता पूर्वक करता है। फिर भी, उसे गालियाँ सुननी पड़ती है। एक समय था जब सेठ जी ग्राहकों के लिए तरसते थे। उस समय भी एक वफादार व्यक्ति की तरह मुरलीधर ही उनके साथ रहता। ग्राहकों को जुटाने का हर संभव प्रयास करता।

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अँगुली हिलाओ, पंजे चलाओ

पकरू ने ‘बड़का बाबा’ की मूर्ति पर फूलों के साथ थोड़ी दारू छिड़की और अपना तीर कमान सामने भागते खरगोश पर तान छोड़ दिया।

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