दिल्ली प्रवास के छः दिन
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दिल्ली प्रवास के छः दिन

डायरी के पन्ने पलटने शुरू किए, तो मेरे सामने दिल्ली-प्रवास (16 से 21 दिसंबर, 2013) के किस्से खुलने लगे। उन किस्सों में ऐसा उलझा, कि जिस मुद्दे पर लिखना चाहता था, वह धरा रह गया। अब सोचता हूँ कि इस बार डायरी के इन्हीं कुछ पन्नों को आपके सामने रखूँ। कई बार ऐसा होता है कि अत्यंत सामान्य-सी दिखने वाली चीजों में भी कुछ खास चीजें दिख जाती हैं।

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क्रूज से आइलैंड ऑफ फीमेल को

आमतौर हम जब कभी क्रूज (पानी के जहाज) से यात्रा की बात करते हैं तो, वास्कोडिगामा तथा कोलम्बस वाले कष्टों से भरे सफर का चित्र हमारी आँखों के सामने आ जाता है, लगता है चारों तरफ पानी ही पानी और बीच में अंजानों का साथ कैसा लगता होगा वहाँ?

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एक बार लाहौर जाकर तो देखें

मैं पाकिस्तान जाना चाहती हूँ... मेरा यह वाक्य अभी पूरा भी नहीं हो सका था और मैं कई टिप्पणियों के घेरे में थी। ‘यहाँ ऐसी कई नई जगहें हैं, जिन्हें तुम देख सकती हो, फिर पाकिस्तान क्यों?’ यदि भारत और पाकिस्तान के बीच जंग छिड़ी, तो पहला काम वे बाॅर्डर को सील करने का ही करेंगे, फिर तुम हमेशा के लिए उधर ही रह जाओगी।’

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कश्मीर की सैर

कश्मीर का मुकाबला कोई भी नहीं कर सकता। हमारे कितने मित्र जिन्होंने विदेश का भी भ्रमण किया है, कहते थे कि कश्मीर की शोभा स्विट्जरलैंड की पहाड़ी से भी अनुपम है।

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बदरीनाथ

भूतपूर्व रावल साहब बतला रहे थे कि मैंने यहाँ सूर्य की एक खंडित मूर्ति देखी थी किंतु अब वह दिखाई नहीं देती। जान पड़ता है यात्रियों के साथ पुरानी मूर्तियों के व्यापारी भी आते रहे हैं, जिनके कारण एक भी खंडित मूर्ति बचने नहीं पाई।

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मेरी कोटा-यात्रा (भ्रमण)

सुनते हैं, साहित्यिकों में ‘प्रसाद’ बड़े ही प्रवास-भीरु थे। पर जब से मैं जोशी कॉलेज में हिंदी का अध्यापक हुआ, तब से कुछ यों कोल्हू के बैल वाला चक्कर शुरू हुआ कि यदि आज ‘प्रसाद’ जीवित होते, तो उन्हें भी मेरे घर घुस्सपन का लोहा मानना पड़ता। लेकिन, मेरे पूर्व जन्म का घुमक्कड़-संस्कार बिल्कुल मर नहीं सका।

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